पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/२१०

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सकता। ऐसी अवस्था में भक्ति किसकी होगी ? प्रेम किस से किया जायगा और किसके गुणों का मनन चिन्तन कर के मनुष्य अपनी आत्मा को उन्नत बना सकेगा। इन्हीं बातों पर दृष्टि रखकर परमात्मा के सगुण स्वरूप की कल्पना है। जो यह समझता है कि बिना सगुणोपासना किये हम परमात्मा के निर्गुण स्वरूप का ज्ञान प्राप्त कर लेंगे वह उसो जिज्ञासु के समान है जो विश्व-नियन्ता का परिचय प्राप्त करना चाहता है किन्तु यह जानता ही नहीं कि विश्व क्या है। पुराण सगुण-पथ का पथिक बना कर निर्गुण की प्राप्ति कराते हैं, किन्तु बड़ी बुद्धिमता और विवेक के साथ। यही कारण है कि मुख से निर्गुणबाद का गीत गानेवाले भो अन्तमें पुराण- शैली की परिधि के अन्तर्गत हो जाते हैं । चाहे कबीर साहेब हों, अथवा पन्द्रहवीं सदी के दूसरे निर्गुणवादी, उन सबके मार्गप्रदर्शक गुप्त या प्रकट रूप से पुराण ही हैं । हम देखते हैं कि निर्गुणबाद का नाद करनेवाले जब बिना किसी प्रतीक के अवलम्बित पथ पर चलने में असमर्थ होते हैं तो गुरुदेव ही को ईश्वर-स्वरूप मानकर उपासना में अग्रसर होते हैं यह क्या है ? सगुण की उपासना ही तो है। आजकलों निर्गुणवादियों में यह प्रवृत्ति अधिक प्रवल हो गई है। निर्गुणवादियो एक नवीन संप्र- दाय ने तो ईश्वर से मुंह मोड़कर खुल्लमखुल्ला गुरु को ही ईश्वर मान लिया है। चाहे जितना रूप बदला जाय. परन्तु यह भी पौराणिक सिद्धान्तों का हो अनुगमन है, क्योंकि वे कहते हैं:-

गुरु र्ब्रह्मा, गुरु र्विष्णुः गुरुदेव महेश्वरः,
गुरु साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः।

पन्द्रहवीं शताब्दी में मुसलमानों का प्रभाव भारतवर्ष पर बहुत पड़ रहा था। उनकी गज्य-सत्ता उस समय तो प्रवल थी ही उनके धर्म- याजक अथवा पीर भी अपने वर्म के विस्तार में तन, मन से निरत थे। इसलिये हिन्दू जाति पर उनके विचारों और भावों का बहुत अधिक प्रभाव पड़ रहा था ! मुसलमान धर्म अवतारवाद, मूर्ति-पूजा और देववाद का कट्टर विरोधी है, और अपने विचारानुसार एकेरवरवाद का