पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/२११

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प्रवल प्रचारक । यही कारण है कि उस समय के कवोर साहब जैसे कुछ धम प्रचारकों को निर्गुणबाद का राग अलापते देखा जाता है। क्योकि समय उनकी अनुकूलता करता था और वे समय को गति पहचान कर स्वधर्म प्रचार में सफलता लाभ करने के कामुक थे। परन्तु सगुण-वाद का विरोधी होने पर भी वे कभी सन्तों को ईश्वर का स्वरूप कहतेथे और कभी गुरु को। कबीर साहव स्वयं कहते हैं:-

निराकार की आरसी साधों ही की देह।
लखा जो चाहै अलख को इनही में लखि लेह।
कबिरा ते नर अंध हैं गुरु को कहते और।
हरि रूठे गुरु ठौर है गुरु रुटे नहिँ ठौर।
तीन लोक नौ खंड में गुरु ते बड़ा न कोय।
करता करै न करि सकै गुरू करै सो होय॥

यह क्या है ? रूपान्तर से सगुणवाद का प्रतिपादन है और प्रच्छन्न रूप से उस उद्देश्य का प्रति पालन है जिसको जननो पौराणिकता है।

इस शताब्दी में कुछ और ऐसे कवि हुये हैं जो कबीर साहब के पुत्र या शिष्य हैं, जैसे कमाल, भग्गूदास, धरमदास और श्रुति गोपाल । इन लोगों की रचनायें लगभग वैसी ही हैं जैसी पन्द्रहवीं शताब्दी की हिन्दी रचनायें अबतक उपस्थित की गई हैं। विषय भो इन लोगों का धार्मिक ही है। इसलिये इन लोगों की रचनाओं को लेकर कुछ विवेचन करना वाहुल्य मात्र होगा। चरणदास, दयासागर, और जय सागर जैन भी इसी शताब्दी में हुये हैं। परन्तु उनकी रचनायें भी लगभग वैसी ही हैं और समय के प्रवाहानुसार धर्म-सम्बन्धी ही हैं। इसलिये उनको भो छोड़ता हूं। हाँ-इस शताब्दी का एक दामो नामक कवि ऐसा है जिसने सामयिक प्रवाह के प्रतिकूल 'पदमावती' नामक प्रेम कहानी की रचना की है। उसके ग्रंथ की कुछ पंक्तियाँ ये हैं: