पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/२१९

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शोभा सर्वस्व पूर्वराग, विरह, सम्भोग, मिलन इत्यादिसे सम्बन्ध रखनेवाली जितनी ललित लोलाओं की सरस धारायें बही हैं, वे कल्पित नहीं हैं। उनका आस्वादन हुआ है और वे आस्वादन योग्य हैं। प्रेम की अद्भुत स्फूर्ति से चैतन्यदेव की देह कदम्ब पुष्प के समान रोमाञ्चित बनती, उन्हें समुद्र की लहरें यमुना की लहरें जान पड़ती. चटक पर्वत गोवर्द्धन प्रतीत होता, और उनके लिये पृथ्वी कृष्णमय हो जाती। इसी अपूर्व भक्ति और प्रेमकी सामग्री के आधार से श्रीमती राधिका सुन्दरी सृष्ट हुई हैं। उनके विरह जन्य कष्ट को एक कणिका धारण करे, अथवा उनके सुख की एक लहरीका अनुभव कर सके, इस प्रकार का नारी-चरित्र पृथ्वी-तल के काव्योद्यान में नहीं पाया जाता" । * अवतक इस विषय में जो कुछ लिखा गया उससे यह सिद्ध होता है कि सोलहवीं शताब्दी में महाप्रभु बल्लभाचार्य्यने कृष्णप्रेमकी जो सरस धारा बहाई वह समयोपयोगी थी और उसका उस काल और उसके बाद के हिन्दी साहित्य पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा।



इस शताब्दी में जिस प्रकार एक नवीन धर्म का प्रवाह प्रवाहित होकर हिन्दू जाति की धार्मिक प्रवृत्ति में एक अभिनव स्फूर्ति उत्पन्न करने का साधन हुआ। उसी प्रकार हिन्दी भाषा सम्बन्धी साहित्य में ऐसी दो मुग्धकारी मूत्तियां भी सामने आई. जो उसको बहुत बड़ी बिशेषता प्रदान करने में समर्थ हुई । वे दो मूर्तियां ब्रजभाषा और अवधी की हैं। इन दोनों उपभाषाओं में जैसा सुन्दर और उच्चकोटि का साहित्य इस शताब्दी में विरचित हुआ फिर अब तक वैसा साहित्य हिन्दू संसार सर्वसाधारण के सामने उपस्थित नहीं कर सका। इसलिये इस काल के कविगण की चर्चा करने के पहले यह उचित ज्ञात होता है कि इन उपभाषाओं की विशेषता पर कुछ प्रकाश डाला जावे जिससे इनमें हुई रचनाओं की महत्ता और स्वाभाविकता स्पष्टतया बतलायी जा सके । इस विचार को सामने रखकर अब मैं इनकी विशेष प्रणालियों को यहां उपस्थित करता हूं। अवधी और ब्रजभाषा की कुछ विशेषतायें तो ऐसी हैं जो दोनों ही में देखिये बंग भाषा और साहित्य का पृ० २४३, २४४ ।