पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/२२१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

( २०७ ) जायगा। और सम्पत्ति, दम्पति, कम्पित इत्यादि क्रमशः संपत्ति, दंपति, ओर कंपित बन जायगे। प्राकृत के कुछ प्राचीन शब्द ऐसे हैं जो दोनों में समान रूप से गृहीत हैं जैसे नाह, लोयन, सायर इत्यादि। कुछ शब्दों के मध्य का 'व', 'औ', से, और 'य' 'ऐ' से प्रायः बदल जाता है, जैसे पवन का पौन, भवन का भौन, रवन का रोन इत्यादि और नयन का नैन,बयन का बेन, सयन का सैन इत्यादि। परन्तु विकल्प से तत्सम रूप भी कहीं कहों वाक्य के स्वारस्य पर दृष्टि रख कर लिख दिया जाता है । अप-भ्रंश के प्रथमा द्वितीया ओर पष्ठी विभक्तियों का लोप प्रायः देखा जाता है । अवधी और ब्रजभाषा में इनका तो लोप होता ही है, सप्तमी विभक्ति का लोप भी होता है यथावसर अन्य विभक्तियों का भी। अपभ्रंश में प्रथमा और द्वितीया के एक वचन में प्रायः उकार का संयोग प्रातिपादिक शब्दों के अंतिम अक्षर में देखा जाता है । अवधी और प्रजभाषा में भी यह प्रणाली गृहीत है। कभी कभी विशेषण और अव्ययों में भी वह दिख- लाई पड़ता है। गुरु को लघु ओर लघु को गुरु आवश्यकतानुसार दोनों में कर दिया जाता है। पूर्व कालिक क्रिया बनाने के समय धातु का चिन्ह'ना' दूर करके उसके बाद वाले वण में इकार का प्रयोग दोनों करती हैं, जैसे करि' 'धरि' सुनि' इत्यादि। यह इकार तुकान्त में दोघ भी हो जाता है। प्रजभाषा में बहु वचन के लिये न का प्रयोग होता है। जैसे 'घोरा' का 'घोरान', और 'छोरा' का 'छोरान', परन्तु दूसरा रूप 'घोरन'और 'छोरन' भी बनता है। अवधी में केवल दूसरा ही रूप होता है । गोस्वामो जी लिखते हैं.-'तुरत सकल लोगन पँह जाहू', 'पुरवासिन देखे- दोउ भाई हरिभक्तन देखेउ दोउ भ्राता। परन्तु जाई सीको न के स्थान पर न्ह का प्रयोग ही बहुधा करते देखा जाता है। प्रकृति के साथ विभक्ति मिला कर लिखने को प्रणालो दोनों भाषाओं में समान रूप से पाई जातो है। ब्रजभाषा का पुराना रूप रामहि', 'बनहि', 'घरहिं और नये रूप 'राम' बनै', 'घरे' इसके प्रमाण हैं। अवधी में भी यह बात देखी जाती है, जैसे 'घरे जात बाटी का घरे', नैहरे जोय' १ का नैहरे' । ‘जाना', 'होना' के १-बन में अहिर नैहरे जोय । जल में केवट केहुक न होय ।