पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/२३२

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( २१८ )

६-उन्ह बानन्ह अस को जो न मारा।
          वेधि रहा सगरौ संसारा ।
गगन नखत जो जाहिं न गने ।
          वै सब बान ओहि के हने ।
धरती बान बेधि सब राखी ।
          साखी ठाढ़ देहिं सब साखी ।
रोम रोम मानुस तनु ठाढ़े।
          सूतहि सूत बेध अस गाढ़े।
वरुनि बान अस ओपँह,
          बेधे रन बन ढाँख ।
सौजहि तन सब रोआँ,
          पंखिहिं तन सब पाँख ।
पुहुप सुगंध करइ यहि आसा ।
          मकु हिरकाइ लेइ हम्ह पासा ।
७-पवन जाइ तहँ पहुंचइ चहा ।
          मारा तैस लोट भूँइ रहा ।
अगिनि उठी जरि उठी नियाना।
          धुवाँ उठा उठि बीच बिलाना ।
पानि उठा उठि जाइ न छूआ।
          बहुरा रोइ आइ भुंई चूआ।
८-करि सिंगार तापहं का जाऊं।
       __ ओही देखहुँ ठावहिं ठाऊँ।
जौ पिउ महँ तो उहै पियारा।
          तन मन सों नहिं होइ निनारा ।