पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/२३३

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नैन माँह है उहै समाना।
देखहुँ तहाँ नाहिं कोउ आना।
९-देखि एक कौतुक हौं रहा।
रहा अँतर पट पै नहिं रहा।
सरवर देख एक मैं सोई।
रहा पानि औ पानि न होई।
सरग आइ धरती महँ छावा।
रहा धरति पै धरति न आवा।

पंडित रामचन्द्र शुक्ल ने इन प्रेम मार्गी सूफ़ी कवियों और मलिक मुहम्मद जायसी के विषय में जो कुछ लिखा है वह अवलोकनीय है। इस लिये मैं यहाँ उसको भी उद्धृत कर देता हूँ:-

"कबीर ने अपनी झाड़-फटकार के द्वारा हिन्दुओं और मुसल्मानों का कट्टरपन दूर करने का जो प्रयत्न किया वह अधिकतर चिढ़ानेवाला सिद्ध हुआ, हृदय को स्पर्श करनेवाला नहीं। मनुष्य मनुष्य के बीच जो रागात्मक सम्बन्ध है वह उसके द्वारा व्यक्त न हुआ। अपने नित्य के जीवन में जिस हृदय-साम्य का अनुभव मनुष्य कभी कभी किया करता है उसकी अभिव्यंजना उससे न हुई। कुतबन, जायसी आदि इन प्रेम-कहानी के कवियों ने प्रेम का शुद्ध मार्ग दिखाते हुये उन सामान्य जीवन-दशाओं को सामने रक्खा जिनका मनुष्यमात्र के हृदय पर एक सा प्रभाव दिखायी पड़ता है। हिन्दू हृदय और मुसल्मान हृदय आमने-सामने करके अजनबी- पन मिटाने वालों में इन्हीं का नाम लेना पड़ेगा। इन्होंने मुसल्मान हो कर हिन्दुओं की कहानियां हिन्दुओं ही की बोली में पूरी सहृदयता से कह कर उनके जीवन की मर्म-स्पर्शिनी अवस्थाओं के साथ अपने उदार हृदय का पूर्ण सामञ्जस्य दिखा दिया। कबीर ने केवल भिन्न प्रतीत होती हुई परोक्ष सत्ता की एकता का आभास दिया था। प्रत्यक्ष जीवन की