पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/२३९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
[२२५]


जेहिकेर', 'बेनी छोरिझार जो बाग' बेधे जनौ मलैगिरि बासा', 'चढ़ा असाढ़ गगन घन गाजा', 'जनु घन महं दामिनि परगसी' का सरवर तेहि देहिं मयंकू' 'कनकपाट जनुबैठा राजा', 'मान सरोदक उलथहिँ दोऊ', 'उठहिं तुरंग लेहि नहिं बागा' 'अधर सुरंग अमी रस भरे', हीरा लेइ सो विद्रुम धारा', 'केहि कहँ कँवल बिगासा, को मधुकर रस लेइ । रसना कहौं जो कह रस बाता', क्षुद्र घंटिका मोहहिं राजा' 'नाभि कुंड सो मलय समीरू', 'पन्नग पंकज मुख गहे खंजन तहाँ बईठ वे ऐसे शब्दों का व्यवहार भी करते हैं जिनका व्यवहार न तो किसी ग्रन्थ में देखा जाता है. न वे जनता की बोलचाल में गृहीत हैं। ऐसे शब्द या तो कविता-गत संकीर्णता के कारण. वे स्वयं गढ़ लेते हैं. या अनुप्रास का झमेला उन्हें ऐसा करने के लिये विवश करता है। अथवा इस प्रकार की तोड़-मरोड़ एवं उच्छृंखलता को वे अनुचित नहीं समझते। नीचे के पद्यों के वे शब्द इसके प्रमाण हैं जिनपर चिन्ह बना दिये गये हैं ..

कीन्हेसि राकस भूत परीता,
         कीन्हेसि भोकम देव दईता ।
औ तेहि प्रोति सिहिटि उपराजी
         वह अवगाह दीन्ह तेहि हाथी ।
उंहे धनुस किरसुन पहँ अहा ।
       बेग आइ पिय बाजहु गाजहु होइ सदर ।
जोबन जनम करै भममंत् ।
            कैसे जियै विछोही पखी ।
तन तिनउर भा डोल।
बिरिध खाइ नव जोबन सै तिरिया सों ऊड़।
रिकवँछ कीन नाइ के हींग मरिच औ आद ।