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पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/२४

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बोलता युवाम् तो दूसरा युवम्। किसी के मुख से पश्चात् सुना जाता और किसी के मुखसे पश्चात कोई युष्मासु और कोई युष्मे कहता। इसी प्रकारदेवाः देवासः-श्रवण-श्रोणा-अवधोतयति, अब ज्योतयति इत्यादि भिन्न प्रकार का व्यवहार होता। कोई किसी २ स्थान पर प्रातिपदिक शब्दों के बाद विभक्तियों का प्रयोग बिलकुल नहीं करता जैसे परमेव्योमन) कोई करता। कोई किसी शब्दका कोई अंश लोप करके उसका उच्चारण करता जैसे("त्मना') कोई ऐसा नहीं करता। कोई विशेषण के अनुसार विशेषण के लिङ्गादि को भी ठीक करके उसका व्यवहार करता, कोई इसकी परवा नहीं करता, जिसमें सुविधा होती वही करता (जैसे 'बहुलापृथूनि' भुवनानि विश्वा') कभी कोई संयुक्त वर्ण के पूर्वस्थित दीर्घस्वर को ह्रस्व करके उच्चारण करता (जैसे रोदसिप्राम्) और अनेक अवस्थाओं में ऐसा नहीं करता। एक मनुष्य किसी अक्षर को जैसे उच्चारण करता दूसरा उसको उस दूसरे प्रकार से कहता। एक ड किसी स्थान पर ल और कहीं ल् उच्चरित होता (देखो ऋ॰ प्रा॰ १-१० ११) पदान्त में वर्गके तृतीय वर्ण को और दूसरे उसके प्रथम वर्णको उच्चारण करते। जिनका वैदिक भाषा के साथ थोड़ा परिचय भी है, वे भलीभांति जानते हैं कि वैदिक भाषा में इस प्रकार प्रयोगों की कितनी भिन्नता है। यह बात भलीभांति प्रमाणित करती है कि वैदिक भाषा बोलचाल की भाषा थी"।

संभव है कि यह विचार सर्व सम्मन न हो, परन्तु प्रश्न यह है कि जो मूल भाषा की पुकार मचाते हैं, उनसे यदि पूछा जावे, कि आप की 'मूल भाषा का' रूप कहाँ कुछ पाया जाता है तो वैदिक मंत्रोंको छोड़ वे क्योंकि ओर उंगली उठावेंगे। ऋगवेद ही संसार की लाईब्रेरी में सबसे प्राचीन पुस्तक है, जो उसमें मूल भाषा प्रति फलित नहीं, तो फिर उसका दर्शन किसी दूसरी जगह नहीं हो सकता। दूसरी बात यह कि साहित्यिक होने से किसी भाषा का रूप बिलकुल नहीं बदल जाता उसकी विशेषतायें उसमें मौजूद रहती हैं अन्यथा वह उस भाषा की रचना हो ही नहीं सकती। क्या ग्राम साहित्य की रचनाओं में बोलचाल की भाषा का