पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/२८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

(२४)

गया है। इसी प्राकृत का अन्यतम रूप पाली अथवा मागधी है। कहा जाता है कि इस भाषा में वैदिक संस्कृत के शब्दों को बेतरह विकृत होते देखकर आय विद्वानों को विशेष चिन्ता हुई, अतएव उन्होंने उसकी रक्षा और उसके संस्कार का प्रयत्न किया। और इस प्रकार लौकिक संस्कृत की नीव पड़ी। अनेक विद्वानों ने इस लौकिक संस्कृत से ही सब प्राकृतों की उत्पत्ति मानी है। यह बड़ा वादग्रस्त विषय है, अतएव में इसपर विशेष प्रकाश डालना चाहता। पालीभाषा अथवा मागधी के विषय में भी तरह तरह की बातें कही गई हैं, वे भी विचारणीय हैं। अतएव मैं अब इन्हीं विषयों की ओर प्रवृत्त होता हूं। जहां तक विचार किया गया, निम्न लिखित तीन सिद्धान्त इस विवाद के आधार हैं—

१—यह कि समस्त प्राकृतों की जननी संस्कृत भाषा है—

२—यह कि प्राकृत स्वयं स्वतन्त्र और मूल भाषा है, वह न तो वैदिक भाषा से उत्पन्न हुई, न संस्कृति से—

३—यह कि प्राचीन वैदिक भाषा ही वह उद्गम स्थान है, जहां से समस्त प्राकृतभाषाओं के स्रोत प्रवाहित हुये हैं, संस्कृत भी उसी का परिमार्जित रूप है।

सबसे पहले प्रथम सिद्धान्त को लीजिये उसके प्रतिपादक संस्कृत और प्राकृत भाषा के कुछ वावदूक विबुध और हमारी हिन्दी भाषा के धुरन्धर विद्वान हैं वे कहते हैं—

"प्रकृति: संस्कृतम् तत्र भवं तत आगतं वा प्राकृतम्"

वैयाकरण हमचन्द्र

"प्रकृतिः संस्कृतं तत्र भवत्वात् प्राकृतम् स्मृतम्"

प्राकृतचन्द्रिकाकार

"प्राकृतस्य तु सर्वमेव संस्कृतम्योनिः

प्राकृत संजीवनीकार

यह सव मम्मत सिद्धान्त है कि प्रकृति संस्कृत होने पर भी कालान्तर में प्राकृत एक स्वतंत्र भाषा मानी गई" स्व॰ पण्डित गोबिन्द नारायण मिश्र