पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/३०

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अब तीसरे सिद्धान्त वालों का विचार सुनिये। यह दल समधिक पुष्ट है, इसमें पाश्चात्य विद्वान तो हैं ही, भारतीय विद्वानों की संख्या भी न्यून नहीं हैं। क्रमशः अनेक विद्वानों की सम्मति में आपलोगों के सामने उपस्थित करता हूं। जर्मन विद्वान वेवर कहते हैं "वैदिक भाषा से ही एक ओर सुगठित और सुप्रणाली बद्ध होकर संस्कृत भाषा का जन्म, और दूसरी ओर मानव प्रकृति सिद्ध और अनियत वेगाने वेगवान प्राकृत भाषा का प्रचलन हुआ। प्राचीन वैदिक भाषा ही क्रमशः विगड़ कर सव साधारण के मुग्यसे प्राकृत भाषा हुई"-वंगला विश्वकोश पृष्ट ४३३

श्रीमान विधुशेखर शास्त्री अपने पालि प्रकाश नामक वंगला ग्रन्थमें क्या लिखते हैं उसे भी देग्विय -

"आयगण की वेदभापा और अनाम्यगण की माधारण भाषा में एक प्रकार का मंमिश्रण होने से बहुत में अनाय दाद वतमान कथ्य वेद भाषा के साथ मिश्रित हा गये, इस संमिश्रणजात भाषा का नाम ही प्राकृत है"

पालि प्रकाश प्रवेशक पृष्ट ३६
 

हिन्दीभाषा के प्रसिद्ध विद्वान श्रीमान पण्डित महावीर प्रसाद द्विवेदी की यह अनुमति है-

"हमारे आदिम आग्यों की भापा पुगनी संस्कृत थी. उसके कुछ नमूने ऋग्वेद में वत्त मान है, उसका विकास होत होते कई प्रकार की प्राकृत पढ़ा हो गई, हमारी विशुद्ध संग्वृत किसी पुगनीकृतन ही परिमार्जित हुई "।

अब में देवगा इन तीना सिद्धान्तों में कौनमा सिद्धान्त विशेष उपपत्ति मूलक है । शब्द शास्त्र की गुन्थियों को सुलझाना गुलभ नहीं, लोग जितना ही इसको सुलझाते हैं, उलझन उतनी ही बढ़ती है। बहुत कुल छानबीन हुई, किन्तु भापा-विज्ञान का अगाध ग्नाकर आज भी बिना छान हुये पड़ा है। उन मो सो ताहन छाना गया, किन्तु ग्न का हाथ आना सबके भाग्य में कहां ! में इस उद्योग में नहीं हूँ, न मुझमें इतनी योग्यता है, न मैं इस घनोभूत अन्धकार में प्रवेश करने के लिये सुन्दर आलोक प्रस्तुत कर सकता हूं, केवल में विचारों का दिग्दर्शन मात्र कमगा। प्रथम सिद्धांत के