१- एक इहाँऊं उहाँ अतिदीन सुदेत दुहृंदिसि के जनगारी
२- प्रभाउ आपनो दिखाउ छोंड़ि वालि भाइ कै।
३- रिझाउ रामपुत्र मोहिं राम लै छुड़ाइ कै।
४- अन्न देइ सीख देइ।राखि लेइ प्राण जात।
५. हँसि बंधु त्यों दृगदीन।श्रु तिनासिका विनु कीन।
६. कीधौं वह लक्षमण होइ नहीं।
इसका कारण यही मालूम होता है कि उस काल हिन्दी भाषा के बड़े बड़े कवियों का विचार साहित्यिक भाषा को व्यापक बनाने की ओर था।इस लिये वे लोग कम से कम अवधी और ब्रजभाषा में कतिपय आवश्यक और उपयुक्त शब्दों के व्यवहार में कोई भेद नहीं रखना चाहते थे। इस काल के महाकवि सूर तुलसी और केशव को इसी ढंग में ढला देखा जाता है। उन्होंने अपनी रचना एक विशेष भाषा में ही अर्थात् अवधी या ब्रज-भाषा में की है। परन्तु एक दूसरे में इतना विभेद नहीं स्वीकार किया कि उनके प्रचलित शब्दों का व्यवहार विशेष अवस्थाओं और संकीर्ण स्थलों पर न किया जावे। इन महाकवियों के अतिरिक्त उस काल के अन्य कवियों का झुकाव भी इस ओर देखा जाता है। उनकी रचनाओं को पढ़ने से यह बात ज्ञात होगी।
केशव दास जी की रचनाओं में पांडित्य कितना है.उसके परिचय के लिये आप लोग उद्धृत पद्यों में से चौथे पद्य को देखिये। उस में इस प्रकार के वाक्यों का प्रयोग है जो दो अर्थ रखते हैं। मैं उनको स्पष्ट किये देता हूं। चौथे पद्म में उन्होंने महाराज दशरथ को विधि के समान कहा है, क्योंकि दोनों हो 'विमानी कृत राजहंस' हैं । इसका पहल अर्थ जो विधिपरक है यह है कि राजहंस उनका वाहन (विमान) है । दूसरा अर्थ जो महाराज दशरथ परक है. यह है कि उन्होंने राजाओं की आत्मा(हंस को मानरहित बना दिया. अर्थात् सदा वे उनके चित्त पर चढ़े रहते हैं। सुमेरु पर्वत अचल है। दूसरे पद्य में उसी के समान उन्होंने महाराज दशरथ को भी अचल बनाया। भाव इसका यह है कि वे स्वकर्तव्य-पालन