पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/३०८

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"तैं नर का पुराण सुनि कीना।
अनपायनी भगति नहिं उपजी भूखे दान न दीना।
काम न बिसम्यो, क्रोध न बिसम्यो, लोभ न छूट्यो देवा।
हिंसा तो मन ते नहिं छूटी बिफल भई सब सेवा।
बाट पारि घर मूंसि बिरानो पेट भरै अपराधी।
जेहि परलोक जाय अपकीरति सोई अविद्या साधी।
हिंसा तो मन ते नहिं छूटी जीव दया नहिँ पाली।
परमानंद साधु संगति मिलि कथा पुनीत न चाली।"

उनका एक पद और देखियेः-

"व्रज के विरही लोग बिचारे।
बिन गोपाल ठगे से ठाढ़े अति दुर्वल तन हारे।
मातु जसोदा पंथ निहारत निरखत साँझ सकारे।
जो कोई कान्ह कान्ह कहि बोलत अँखियन बहत पनारे।
यह मथुरा काजर की रेखा जे निकसेते कारे।
परमानंद स्वामि बिनु ऐसे जस चन्दा बिनु तारे।

कुंभनदासजी गौरवा ब्राह्मण थे। इनमें त्याग-वृत्ति अधिक थी। एकबार अकबर के बुलाने पर फतेहपुर सीकरी गये, परन्तु उनको व्यथित होकर यह कहना पड़ाः-

"भक्तन को कहा सीकरी सों काम।
आवत जात पनहियां टूटी विसरि गयो हरिनाम।
जाको मुख देखे दुख लागै तिनको करिबे परी सलाम।
कुंभन दास लाल गिरधर बिन और सबै बेकाम।"

इनके किसी ग्रन्थ का पता नहीं चलता। एक पद्य और देखियेः-