पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/३१

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विषय में मैं कुछ विशेष नहीं लिखना चाहता, वेदभाषा को प्राचीन संस्कृत कहा जाता है, कोई कोई वेदभापा को वैदिक और पाणिनि काल की और उसके बादक ग्रन्थों की भाषाको लौकिक संस्कृत कहते हैं । प्रथम सिद्धान्त वालोंने संस्कृत से हो प्राकृत की उत्पत्ति बतलाई है . यदि संस्कृत से वैदिक संस्कृत अभिप्रेत है, तो प्रथम सिद्धान्त तीसरे सिद्धान्त के अन्तर्गत हो जाता है, और विरोध का निगकरण होता है। परन्तु वास्तव बात यह है कि प्रथम सिद्धान्त वालों का अभिप्राय वैदिक संस्कृत से नहीं वग्न लौकिक संस्कृत से है क्यों कि पड्भाषा चन्द्रिकाकार यह लिखते हैं

. भाषा द्विधा संस्कृता च प्राकृती चेति भेदतः ।

कौमार पाणिनीयादि संस्कृता संस्कृता मता।

प्रकृते: संस्कृतायास्तु विकृतिः प्राकृता मता।

अतएव दोनों सिद्धान्तों का परस्पर विरोधी होना स्पष्ट है। आइये प्रथम सिद्धान्त की मारवत्ता का विचार करें। शिक्षा नामक वेदांग के पाँचवं अध्याय का यह अद्धश्लोक कि "प्राकृते संस्कृते वापि स्वयं प्रोक्ता सम्वयंभुवा' इस विषय को बहुत कुछ स्पष्ट करता है। इसका अर्थ है स्वयं आदि पुरुप प्राकृत अथवा संस्कृत बोलते थे। इस श्लोक में प्राकृत को अग्र स्थान दिया गया है, जो पश्चादवी संस्कृत को उसका पश्चादवर्ती बनाता है । इसलिये लोकिक संस्कृत में प्राकृत की उत्पत्ति नहीं मानी जा सकती। दूसरी बात यह कि प्राकृत भाषा में अनेक ऐसे शब्द मिलते हैं कि जिनका लौकिक संस्कृतमें पता तक नहीं चलता। परन्तु वे शब्द वैदिक संस्कृत अथवा वैदिक भाषा में पाये जाते हैं । इसन यह बात स्वीकार करनी पड़ती है, कि प्राकृत की उत्पत्ति यदि हो सकती है, तो वैदिक भाषा में हो सकती है. लौकिक संस्कृत में नहीं। शब्द व्यवहार की दृष्टि में प्राकृत भाषा, जितनी वेद भाषा की निकटवर्ती है, संस्कृत की नहीं। बोलचाल की भाषा होनेके कारण वैदिक भाषा में वे शब्द मिलते हैं. जो प्राकृत में उसी रूप में आये, परन्तु संस्कार हो जानेक कारण लौकिक संस्कृत में उनका अभाव हो गया। यदि संस्कृत से प्राकृत की उत्पत्ति हुई होती, तो इस प्रकार के शब्द उसमें