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चतुर्भुज दास जी कुम्भन दास जी के पुत्र थे। वे बाल्यकाल ही से कृष्ण-लीला-गान में मत्त रहते थे।लीला सम्बन्धी उनकी अनेक रचनायें हैं। उन्होंने द्वादशयश', 'भक्ति प्रताप', और 'हित जू को मंगल' नामक तीन ग्रन्थ बनाये। उनकी रचना देखियेः-

"जसोदा कहा कहौं बात?
तुम्हरे सुत के करतब मोपै कहत कहे नहिं जात।
भाजन फोरि, ढारि सब गोरस, लै माखन दधि खात।
जौ बरजौं तौं आंखि दिखावै, रंचहुँ नाहिं सकात।
दास चतुर्भुज गिरिधर गुन हौं कहति कहति सकुचात।"

छीत स्वामी मथुरा के चोबे थे। जादू टोना से इनको बड़ा प्रेम था ।मथुरा में पांच चौथे गुण्डे माने जाते थे। ये उनके प्रधान थे। परन्तु श्री विट्ठलनाथ जी के सत्संग से उनके हृदय में भगवद्भक्ति का ऐसा प्रवाह बहा कि उनकी गणना अष्टछाप के वैष्णवों में हुई । इनका ग्रन्थ कोई नहीं मिलता,फुटकर रचनायें मिलती हैं। इनमें से एक पद्य नीचे दिया जाता है:-

"भई अब गिरिधर सों पहचान।
कपट रूप छलबे आये हो पुरुषोत्तम नहिं जान।
छोटो बड़ो कछू नहिं जान्यो छाय रह्यो अज्ञान।
छीत स्वामि देखत अपनायो विट्ठल कृपा निधान।"

गोबिन्द स्वामी सनाढ्य ब्राह्मण थे। उनकी भक्ति प्रसिद्ध है। वे बड़े आनन्दी जीव थे। विट्ठलनाथजी के मुख से भागवत के भगवल्लीला सम्बन्धी पदों को सुन कर कभी कभी उन्मत्त हो जाते थे। इनके भी फुटकर पद ही प्राप्त होते हैं। उनमें से एक यह है:-

प्रात समै उठि जसुमति जननी
गिरधर सुत को उबटि न्हवावति