अवश्य मिलते, जब नहीं मिलते तव संस्कृत से उसकी उत्पत्ति मानना युक्ति संगत नहीं । इस प्रकार के कुछ शब्दों का उल्लेख नीच किया जाता है।
प्राकृत में पद का आदि वर्ण गत 'र' और "य" प्रायः लोप हो जाता है। जैस संस्कृत ग्राम प्राकृत में गाम होगा, और व्यवस्थित होगा बवत्थित । वैदिक भाषा में भी इस प्रकार का प्रयोग पाया जाता है, जैसे-अप्रगल्भ के स्थान पर अपगल्भ ( तै० स० ४, ५, ६, १) त्रि+ऋच् से व्यच् पद न होकर त्रिच और तृच होता है (शत० ब्रा० १, ३, ३, ३३) कात्यायन श्रौत सूत्र में भी इस प्रकार का प्रयोग देखा जाता है। यास्क कहते हैं-“अथापि द्विवर्ण लोपन्तृचः' : नि० २, १, २) अर्थात् यहाँ त्रिशब्द के रकार और इकार दोनों लोप हो गये।
प्राकृत में संयुक्त वर्ण का पूर्ववर्ती दीर्घ स्वर प्रायः ह्रस्व हो जाता है । जैसे----मात्रा, मत्ता इत्यादि । वैदिक भापा में भी इस प्रकार का प्रयोग देखा जाता है। जैसे गेदमीप्रा गेदसिग्रा ( ऋ० स० १०, ८८, १० ) अमात्र- अमत्र ( ऋ० स० ३॥ ३६॥ ४ )-
प्राकृत में अनेक स्थानों पर संयुक्त वण के स्थान पर एक व्यञ्जन का लोप करके पूर्ववर्ती ह्रस्व स्वर को दीर्घ कर दिया जाता है जैसे कर्तव्य- कातव्य, निश्वास-नीसास, दुहरि-दृहार। वैदिक भाषा में भी ऐसा होता है, जैसे--दुर्दभ-दृडभ, (ऋ. स. ४, ५, ८) दुनाश-दृणाश ( श्रु० प्रा० ३,४३)
प्राकृत में बहुत स्थान पर ऋकार के स्थान पर उकार होता है, जैसे ऋतु--उतु अथवा उदु इत्यादि, वैदिक साहित्य में भी इस प्रकार प्रयोग अलभ्य नहीं है.--यथा बृन्द-बुन्द ( दपव्यनि० ६-६-४-६)
प्राकृत में बहुत स्थान पर दकार डकार हो जाता है। जैसे दहति- डहति, दण्ड-डण्ड । वैदिक साहित्य में भी ऐसा होता है-जैसे दुर्दभ- दूडभ ( बा० म० ३, ३६ ) पुगेदाश-पुगेडाश (श्रु० प्रा० ३, ४४ शत० ) प्रा० १, ५, १, ५)
प्राकृत में अव के स्थान पर उकार और अय के स्थान पर एकार हो जाता है। जैसे अवहमति उहसित, नयति-नेति । वैदिक साहित्य में भी