पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/३२२

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अरप्यो चारु चरन पद ऊपर लकुट कच्छ तरधारी।
श्री भट मुकुट चटक लटकनि मैं अटकि रहे दृगप्यारी।

श्री भट्ट


रक्त पीतसित असित लसत अंबुज बन सोभा।
टोल टोल मद लोल भ्रमत मधुकर मधु लोभा।
सारस अरु कलहंस कोक कोलाहल कारी।
पुलिन पवित्र विचित्र रचित सुन्दर मनहारी।

गदाधर भट्ट


सबै प्रेम के साधन तरु हरि।
निकसत उमग प्रगट अंकुर बर पात पुराने परिहरि।
गुन सुनि भई दास की आसा दरस्यो परस्यो भावै।
जब दरस्यो तब बोलै चाहै बोले हूँ हंसि आवै।

बिहारिनिदास


जसुमति आनंद कन्द नचावति।
पुलकि पुलकि हुलसाति देखि मुख अतिसुख पुंजहिँ पावति
बाल जुवा वृद्धा किसोर मिलि चुटकी दै दै गावति।
नुपुर सुर मिश्रित धुनि उपजति सुर विरंचि विसमावति।
कुंचित ग्रंथित अलक मनोहर झपकि वदन पर आवति।
जन भगवान मनहुँ धनविधु मिलि चाँदनि मकर लजावति।

हितभगवान


दिन कैसे भरूं री माई बिनदेखे प्रान अधार।
ललित तृभंगी छैल छबीलो पीतम नंद कुमार।
सुन री सखी कदमतर ठाढ़ो मुरली मंद बजावै।
गनिगनि प्यारी गुनगन गावै चितवत चितहिं रिझावै।