पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/३२३

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जियरा धरत न धीरज सजनी कठिन लगन की पीर।
रूप लाल हित आगर नागर सागर सुख की सीर।

हितरूप लाल

इन महात्माओं में अधिकतर ग्रन्थकार हैं, और एक एक ने कई कई ग्रन्थ लिखे हैं, इन सब बातों की चर्चा करने से अधिक विस्तार और विषयान्तर होगा अतएव मैं इस विषय को यहीं छोड़ता हूं। नाभादास जी के गुरु अग्रदास जी भी इसी शताब्दी में हुये। आप ने भी कई ग्रन्थों की रचना की है, 'राम भजन मंजरी' और'भाषा हितोपदेश' उनके सुन्दर ग्रन्थ हैं । एक कविता उनकी भो देखिये:-

कुण्डल ललित कपोल जुगुल अरु परम सुदेसा।
तिनको निरखि प्रकास लजत राकेस दिनेसा।
मेचक कुटिल विसाल सरोरुह नैन सुहाये।
मुख पंकज के निकट मनो अलि छौना आये।

इन उद्धरणों को देखकर आप सोचते होंगे, कि यह व्यर्थ विस्तार किया गया है. परन्तु आवश्यकताओं ने मुझको ऐसा करने के लिये विवश किया। मैं यह दिखलाना चाहता हूं कि सोलहवीं शताब्दी में हिन्दी भाषा कैसे समुन्नत हुई. किस प्रकार व्रजभाषा को प्रधानता मिली और उसका क्या स्वरूप स्थिर हुआ। अतएव मुझको सब प्रकार की रचनाओं का संकलन करना पड़ा। इस शताब्दी में अवधी और ब्रजभापा दोनों का सर्वांगीण श्रृंगार हुआ, दोनों में ऐसे लोकोत्तर ग्रन्थ लिखे गये. जैसे आज तक दृष्टिगोचर न हो सके। परन्तु एक बात देखी जाती है, वह यह कि ब्रजभाषा का विकास बाद की शताब्दियों में भी बहुत कुछ हुआ, वह आगे चल कर भी अच्छी तरह फूली. फली और फैली, किन्तु अवधी को यह गौरव नहीं प्राप्त हुआ। प्रेम मार्गी सूफियों के कुछ ग्रन्थ गोस्वामी जी के पश्चात् भी अवधी भाषा में लिखे गये हैं, परन्तु प्रथम तो उनकी संख्या उंगलियों पर गिनी जा सकती है. दूसरे व्रजभाषा की ग्रंथावली के सामने वे शून्य के