पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/३२७

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हैं। पहले कुछ रीति ग्रन्थ के आचार्यों ने विष्णु भगवान को देवता माना। परन्तु उत्तर-काल में भगवान कृष्णचन्द्र की ही प्रधानता हुई। इस लिये श्रृंगार रस के वर्णन में उनकी व्रजलीला को अधिकतर स्थान दिया गया। और व्रजलीला के साथ ही व्रजभाषा भी सादर गृहीत हुई । सत्रहवीं से लेकर उन्नीसवीं शताब्दी तक जहां थोड़े से अन्य साहित्य के ग्रन्थ लिखे गये वहां श्रृंगार रस के ग्रन्थों की भरमार रही। पहले श्रृंगार रस के वर्णन में कुछ संकोच भी होता था परन्तु उसके कृष्ण-लीलामय होने के कारण जब यह भाव भी आकर उसमें सम्मिलित हो गया कि यह रूपान्तर से कृष्ण गुणगान है १जो पवित्र और निर्दोष है तो बड़े असंयत भाव और अधिकता से श्रृंगार रस की रचनायें होने लगीं । काल पाकर साहित्य पर उसका अच्छा प्रभाव नहीं पड़ा । कृष्ण गुणगान करने के बहाने उच्छृंखलताओं और अयथा वर्णनों ने स्थान ग्रहण किया. जिससे श्रृंगार-सम्बन्धी ग्रन्थ अनेक अंशों में कलुपित होने से न बचे और यह उक्त त्यागशील महात्माओं के उत्तम आदर्शों का बहुत बड़ा दुरुपयोग हुआ जो बाद की अनेक लांछनों का कारण बना । अष्टछाप के वैष्णवों में जो भक्ति और पवित्रता पायी जाती है. स्वामी हित हरिवंश, स्वामी हरिदास आदि महात्माओं में जो सच्ची भक्ति और तन्मयता अथच तदीयता देखी जाती है, विठ्ठल विपुल में जो प्रेमोन्माद और तल्लीनता मिलती है. उसका शतांश भी उत्तर काल के श्रृंगार रस के ग्रन्थकारों में दृष्टिगत नहीं होता। इसलिये उनकी रचनाओं का कुछ अंश ऐसा बन गया जो निंदनीय कहा जा सकता है। यह मैं कहूँगा कि उस काल के कुछ रसिक राजा-महाराजाओं ने इस रोग को बढ़ाया और कुछ ,उस काल के उर्दू और फ़ारसी साहित्य के संसर्ग ने। परन्तु यह सत्य है कि जहाँ व्रजभाषा की रचनाओं के विस्तार के और कारण हुये वहां एक कारण यह श्रृंगार रस का व्यापक प्रवाह भी हुआ। ऊपर जो पद्य उद्धृत किये गये हैं उनमें से ‘करनेस' 'लालनदास' की रचनाओं

१ भिखारीदासजी लिखते हैं:-

'आगे के सुकवि रीझि हैं तो कविताई,
ना तौ राधिका कन्हाई सुमिरन को बहानो है।'