पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/३३०

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काम कलपना कदे न कीजे पूरण ब्रह्म पियारा।
यहि पथ पहुँचि पार गहि दादूसोतत सहज संभारा।

(३) यह मसीत यह देहरा सत गुरु दिया देखाय।
भीतर सेवा बन्दगी बाहर काहे जाय।

(४) सुरग नरक संसय नहीँ, जिवन मरण भय नाहिँ।
राम विमुख जे दिन गये सो सालै मन माहिँ।

(५) जे सिर सौंप्या राम कों, सो सिर भया सनाथ।
दादू दे ऊरण भया जिसका तिसके हाथ।

(६) कहताँ सुनताँ देखताँ लेताँ देताँ प्राण।
दादू सो कतहृं गया माटी भरी मसाण।

(७) आवरे सजणा आव सिर पर धरि पाँव।
जाणी मैंडा जिंद असाड़े
तू रावैंदा राव वे सजणा आव।
इत्थां उत्थां जित्थां कित्थां हौं जीवां तो नाल वे।
मीयां मैंडा आव असाड़े
तूलालों सिर लाल वे सजणा आव।

(८) म्हारे ह्वाला ने काजे रिदै जो वानेहूं ध्यान धरूँ।
आकुल थाए प्राणम्हारा को ने कही पर करूँ।
पीबे पाखे दिन दुहेलां जाए घड़ी बरसांसौं केम भरूँ।
दादू रे जन हरिगुण गातां पूरण स्वामी ते बरूँ ।

दादू दयाल में यह विशेषता थी कि वे पंजाबी और गुजराती भाषा में भी कविता कर सकते थे। उनकी इस प्रकार की रचनायें भी ऊपर उद्धृत की गयी हैं। नम्बर ७ की रचना पंजाबी और नम्बर ८ की गुजराती