भाषा की है। इस प्रकार की उनकी रचनायें थोड़ी हैं। अधिकांश रचनायें ब्रज भाषा की ही हैं जिसमें अधिकतर शब्द राजस्थानी भाषा के और थोड़े अवधी के आये हैं। उनकी भाषा भी संतों की भाषा के समान स्वतंत्र है। उसमें विशेष बन्धन नहीं। जब जहाँ आवश्यक समझते हैं अन्य भाषा के उपयुक्त शब्दों को ग्रहण कर लेते हैं। फिर भी यह कहा जा सकता है कि उनकी भाषा पर व्रज भाषा और राजस्थानी भाषा का ही विशेष प्रभाव है। पहले पद्य को देखिये । वह बहुत ही प्रांजल है और इस भाव से लिखा गया है कि ज्ञात होता है कि वे सूरदासजी का अनुकरण कर रहे हैं। ऐसी उनकी कितनी ही रचनायें हैं। दूसरा पद्य ऐसा है जिसमें राजस्थानी शब्द अधिक आये हैं। फिर भी उसकी भाषा साफ़ और चलती है। दादूदयाल के विचार निर्गुणवादियों के से हैं, परन्तु अन्य निर्गुणवादियों के समान वे भी सगुणोपासक हैं और परमात्मा में अनेक गुणों की कल्पना करते रहते हैं। उन्होंने अपनी रचनाओं में अपने पूर्व के कबीर साहब इत्यादि निर्गुणवादियों को भी स्मरण किया है और स्थान स्थान पर पौराणिक महात्माओं को भी। स्वर्ग नरक इत्यादि का वर्णन भी उनकी रचनाओं में है और पौराणिक उन पापियों का भी जो पतितपावन के अपार अनुग्रह से पाप-मुक्त हो कर अच्छे पद को प्राप्त हो सके। इस लिये उनके विचार भी पौराणिक भावों से ही ओतप्रोत हैं जो समय पर दृष्टि रख कर उनके द्वारा प्रकट किये गये हैं। राजस्थान में उनके पंथवाले अधिक हैं. उनका कार्यक्षेत्र भी आजीवन राजस्थान ही रहा है।
सोलहवीं शताब्दी में हिन्दी साहित्यक्षेत्र में तीन धारायें प्रवल वेग से बहती दृष्टिगत होती हैं। पहली निर्गुणवाद सम्बन्धी दूसरी सगुणवाद या भक्तिमार्ग-सम्बन्धी और तीसरी रीति ग्रन्थ-रचना-सम्बन्धी। इस सदी में निर्गुणवाद के प्रधान प्रचारक कबीर साहब गुरु नानकदेव और