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पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/३३२

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दादूदयाल थे। सगुणोपासना अथवा भक्तिमार्ग के प्रधान प्रवर्त्तक कविवर सूरदास और गोस्वामी तुलसीदास थे। रीति ग्रंथ-रचना के प्रधान आचार्य केशवदास जी कहे जा सकते हैं। इन लोगोंने अपने अपने विषयोंमें जो प्रगल्भता दिखलायी वह उत्तर काल में दृष्टिगत नहीं होती। परन्तु उनका अनुगमन उत्तर काल में तो हुआ ही, वर्त्तमान काल में भी हो रहा है। मैं यथा शक्ति यह दिखलाने की चेष्टा करूंगा कि ई॰ सत्रहवीं शताब्दी में इन धाराओं का क्या रूप रहा और फिर अठ्ठारवीं और उन्नीसवीं शताब्दी में उनका क्या रूप हुआ। इन तीनों शताब्दियों में जो देश कालानुसार अनेक परिवर्त्तन हुये हैं और भिन्न भिन्न विचार भारत वसुन्धरा में फैले हैं। उनका प्रभाव इन तीनों शत्ताब्दियों की रचनाओं में देखा जाता है। साथ ही भाव और भाषा में भी कुछ न कुछ अन्तर होता गया है। इसलिये यह आवश्यक ज्ञात होता है कि इन शताब्दियों के क्रमिक परिवर्त्तन पर भी प्रकाश डाला जावे और यह दिखलाया जावे कि किस क्रम से भाषा और भावमें परिवर्तन होता गया। यह बात निश्चित रूपसे कही जा सकती है कि इन तीनों शताब्दियों में न तो कोई प्रधान धर्म्म-प्रवत्तक उत्पन्न हुआ, न कोई सूरदास जी एवं गोस्वामी तुलसीदास जी के समान महाकवि, और न केशवदास जी के समान महान रीति-ग्रन्थकार। किन्तु, जो साहित्य-सम्बन्धी विशेष धारायें सोलहवीं शताब्दी में बहीं वे अविच्छिन्न गति से इन शताब्दियों में भी बहती ही रहीं, चाहे वे उतनी व्यापक और प्रबल न इन तीनों शताब्दियों में उस प्रकार की प्रभावमयी धारा बहाने में कोई कवि अथवा महाकवि भले ही समर्थ न हुआ हो, परन्तु इन धाराओं से जल ले ले कर अथवा इनके आधार से नई नई जल प्रणालियां निकाल कर वे हिन्दी साहित्य क्षेत्र के सेचन और उसको सरस और सजल बनाने से कभी विरत नहीं हुये। इन शताब्दियों में भी कुछ ऐसे महान् हृदय और भावुक दृष्टिगत होते हैं जिनको साहित्यिक धारायें यदि उक्त धाराओं जैसी नहीं हैं तो भी उनसे बहुत कुछ समता रखने को अधिकारिणी कही जा सकती हैं, विशेष कर रीतिग्रन्थ-रचना के सम्बन्ध में। परन्तु उनमें वह व्यापकता और विशदता नहीं मिलती, जो उनको उनकी समकक्षता का