पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/३३३

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गौरव प्रदान कर सके । मैंने जो कुछ कहा है, वह कहां तक सत्य है, इसका यथार्थ ज्ञान आप लोगों को मेरी आगे लिखी जाने वाली लेखमाला से होगा।

मैं पहले लिख आया हूं कि हिन्दी-साहित्य-क्षेत्र में सोलहवीं शताब्दी में ही व्रजभाषा को प्रधानता प्राप्त हो गयी थी। और कुछ विशेष कारणों से हिन्दी के कवि और महाकवियों ने उसी को हिन्दी साहित्य की प्रधान भाषा स्वीकार कर लिया था। यह बात लगभग यथार्थ है परन्तु यह स्वीकार करना पड़ेगा कि उत्तर-काल के कवियों की मुख्य भाषा भले ही व्रजभाषा हो, किन्तु उसमें अवधी के कोमल, मनोहर अथच भावमयशब्द भी गृहीत हैं। जो कवि कर्म के मर्मज्ञ हैं वे भली भाँति यह जानते हैं कि अनेक अवस्थाओं में कवियों अथवा महाकवियों को ऐसे शब्द-चयन की आवश्यकता होती है, जो उनको भाव-प्रकाशन में उचित सहायता दे सकें और छन्दोगति में वाधक भी न हों। यदि वे 'ऐसो' लिखना चाहते हैं, परन्तु इस शब्द को वे इस लिये नहीं लिख सकते कि उससे छन्दोगति में वाधा पड़ती है और 'अस' लिखने से वे अपने भाव का द्योतन कर सकते हैं और छन्दोगति भी सुरक्षित रहती है तो वे ऐसी विशेष अवस्था में यह नहीं विचारते कि 'अस' शब्द अवधी का है, इस लिये उसको कविता में स्थान न मिलना चाहिये, वरन् वे यह सोचते हैं, कि हिन्दी भाषा का ही यह शब्द है और उसका प्रयोग हिन्दी साहित्य के एक विभाग में पाया जाता है। इस लिये संकीर्ण स्थलों पर उसके ग्रहण में आपत्ति क्या? हिन्दी साहित्य के महाकवियों को ऐसा करते देखा जाता है। क्योंकि वे जानते, हैं कि बोलचाल की भाषा और साहित्यिक भाषा में कुछ न कुछ भिन्नता होती ही है। मेरे कथन का सारांश यह है कि उत्तर काल के कवियों ने जिसे साहित्यिक भाषा के रूप में ग्रहण किया उनमें से अधिकांश की मुख्य भाषा व्रजभाषा ही है,परन्तु अवधी के भी उपयुक्त शब्द उसमें गृहीत हैं। मेरी विचार है कि इससे साहित्य की व्यापकता बढ़ी है,उसका पथ अधिक प्रशस्त हुआ है, और कवि-कम्र्म में भी बहुत कुछ सुविधा प्राप्त हुई है। भाषा की शुद्धता की ओर दृष्टि आकर्षण कर