पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/३३५

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ब्रजभाषा की और अर्धमागधी से अवधी की उत्पत्ति है। ब्रजभाषा और खड़ी बोली दोनों पश्चिमी हैं और अवधी पूर्वी । पछांह वालों की भाषा खड़ी होती है और पूर्व वालों की पड़ी। पछांह वालों के उच्चारण में उठान होती है और पूर्व वालों के उच्चारण में लचक या उसमें चढ़ाव होता है और इसमें उतार । पछाँह वाले कहेंगे ऐसे', 'जैसे', 'कैसे', 'तैसे और पूर्व वाले कहेंगे 'अइसे', 'जइसे', 'कइसे, तइसे' वे कहेंगे गयो' ये कहेंगे 'गयउ । वे कहेगें 'होयहै' या ह है' और ये कहेंगे 'होइहै'। वे कहेंगे रिझै है' ये कहेंगे 'ग्झिइहै'। वे कहेंगे 'कौन' ये कहेंगे 'कवन'। वे कहेंगे 'मैल' ये कहेंगे 'मइल'। वे कहेंगे पाँव' ये कहेंगे पाउ'। वे कहेंगे ‘कीनो', 'लीनो', 'दीनो' और ये कहेंगे कीन', 'लीन', दोन'। इसी प्रकार बहुत से शब्द बतलाये जा सकते हैं। मेरा विचार है, इस साधारण उच्चारण विभेद के कारण एक दूसरे को परस्पर सर्वथा सम्पर्क-हीन समझना युक्ति संगत नहीं। उच्चारण-विभेद के अतिरिक्त कारक-चिन्हों, सर्वनामों और अनेक शब्दों में कुछ विभिन्नतायें भी दोनों में हैं विशेष कर ग्रामीण शब्दों में । उनसे जहाँ तक संभव हो बचने की चेष्टा करनी चाहिये, यद्यपि हमारे आदर्श कवियों और महाकवियों ने अनेक संकीर्ण स्थलों पर इन बातों की भी उपेक्षा की है।


(क)

अब मैं प्रकृत विषय को लेता हूं, सत्रहवीं शताब्दी के निर्गुणवादी कवियों में मलूक दास और सुन्दरदास अधिक प्रसिद्ध हैं। क्रमशः इनकी रचनायें आप लोगों के सामने उपस्थित करके इनकी भाषा आदि के विषय में जो मेरा विचार है उसको मैं प्रकट करूँगा और विकास सूत्र से उनकी जांच पड़ताल भी करता चलूंगा। मलूकदास जी एक खत्री बालक थे । बाल्यकाल से ही इनमें भक्ति का उद्रेक दृष्टिगत होता है । वे द्रविड़ देश के एक महात्मा बिट्ठल दास के शिष्य थे। इनका भी एक पंथ चला जिसकी मुख्य गद्दी कड़ा में है । भारतवर्ष के अन्य भागों में भी उनकी कुछ गद्दियां पाई जाती हैं। उनकी रचनाओं से यह सिद्ध होता है कि उनमें निर्गुण- वादी भाव था, फिर भी वे अधिकतर सगुणोपासना में ही लीन थे। सच्ची बात तो यह है कि पौराणिकता उनके भावों में भरी थी और वे उसके