पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/३३६

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सिद्धान्तों का अनुकरण करते ही दृष्टिगत होते हैं। वे दर्शन के लिये जगन्नाथ जी भी गये थे। वहाँ पर उनके नाम का टुकड़ा अब तक मिलता है। उनकी कुछ रचनायें देखियेः—

१—भील कब करी थी भलाई जिय आप जान।
फी़ल कब हुआ था मुरीद कहु किसका।
गीध कब ज्ञान की किताब का किनारा छुआ।
व्याध और बधिक निसाफ कहु तिसका।
नाग कब माला लै के बन्दगी करी थी बैठ।
मुझको भी लगा था अजामिल का हिसका।
एते बदराहों की बदी करी थी माफ़ जन।
मलूक अजाती पर एती करी रिस का।
२—दीनदयाल सुनी जबते तबते हिय में कछु ऐसी बसी है।
तेरोकहाय कै जाऊँ कहाँ मैं तेरे हितकी पट खैंचिकसीहै।
तेरोही एक भरोस मलूक को तेरे समान न दूजो जसीहै।
एहो मुरारि पुकारि कहौं अब मेरी हँसी नहिं तेरीहँसीहै।
३—ना वह रीझै जप तप कीने ना आतम के जारे।
ना वह रीझै धोती नेती ना काया के पखारे।
दाया करै धरम मन राखै घर में रहे उदासी।
अपना सा दुख सबका जाने ताहि मिलै अबिनासी।
सहै कुसबद बादहू त्यागै छाडै़ गरब गुमाना।
यही रीझ मेरे निरंकार की कहत मलूक दिवाना।
४—गरब न कीजै बावरे हरि गरब प्रहारी।
गरबहिं ते रावन गया पाया दुख भारी।