पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/३३७

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जर न ख़ुदी रघुनाथ के मन माँहिं सोहाती।
जाके जिय अभिमान है ताकी तोरत छाती ।
एक दया औ दीनता ले रहिये भाई ।
चरन गहो जाय साधु के रीझैं रघुराई ।
यही बड़ा उपदेस है पर द्रोह न करिये।
कह मलूक हरि सुमिरि के भौसागर तरिये।

५—दर्द दिवाने बावरे अलमस्त फकीरा
एक अकीदा ले रहे ऐसा मन धीरा ।
प्रेम पियाला पीउ ते बिसरे सब साथी ।
आठ पहर यों झूमते ज्यों माता हाथी ।
साहब मिलि साहब भये कछु रही न तमाई ।
कह मलूक तिस घर गये जहँ पवन न जाई ।
६—अजगर करै न चाकरी पंछी करै न काम ।
दास मलूका यों कहै सब के दाता राम ।
प्रभुताही को सब मरै प्रभु को मरै न कोय ।
जो कोई प्रभु को मरै प्रभुता दामी होय ।

इनकी भाषा स्वतंत्र है। परन्तु खड़ी बोली और ब्रजभाषा का रंग ही उसमें अधिक है। ये फ़ारसी के शब्दों का भी अधिकतर प्रयोग करते हैं और कहीं कहीं छन्द की गति की पूरी रक्षा भी नहीं कर पाते। ऊपर के पद्यों में जिन शब्दों और वाक्यों पर चिन्ह बना दिया गया है उनको देखिये। ये शब्द विन्यास और वाक्य-रचना में अधिकतर ब्रजभाषा के नियमों का पालन करते हैं । परन्तु बहुधा स्वतन्त्रता मी ग्रहण कर लेते हैं। इनकी रचना में संस्कृत के तत्सम शब्द भी आते हैं पर अधिकतर उन पर युक्त-विकर्ष का प्रभाव ही देखा जाता है।