पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/३३९

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भूख सहै रहि रूख तरे
पर सुन्दर दास यहै दुख भारी ।
आसन छाड़ि के कासन ऊपर,
आसन मार्यो पै आस न मारी ।

३-देखहु दुर्मति या संसार की।
हरि सो हीरा छांडि हाथ तें बाँधत मोट विकार की।
नाना बिधि के करम कमावत खबर नहीं सिरभार की।
झूटे सुख में भूलि रहे हैं फूटी आँख गँवार की।
कोइ खेती कोई बनिजी लागे कोई आस हथ्यार की।
अंध धुंध में चहुं दिसिधाये सुधि बिसरी करतार की।
नरक जानि कैमारग चालैसुनि सुनि बात लबारकी
अपने हाथ गले में बाही पासी माया जार की।
बारम्बार पुकार कहतहौं सौहैं सिरजनहार की।
सुंदरदास बिनस करि जैहै देह छिनक में छार की।

४ --धाइ पन्यो गज कूप में देखा नहीं विचारि ।
काम अंध जानै नहीं कालबूत की नारि ।
लालन मेरा लाड़ला रूप बहुत तुझ माहिं ।
सुन्दर राखे नैन में पलक उघारै नाहिं ।
सुन्दर पंछी बिरछ पर लियो बसेरा आनि ।
राति रहे दिन उठि गये त्यों कुटुंब सब जानि ।
लवन पूतरी उदधि में, थाह लैन को जाइ ।
सुन्दर थाह न पाइये बिचही गयो बिलाइ ।