पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/३४३

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भव निस्तारन हेत देत दृढ़ भक्ति सबन नित ।
जासु सुजस ससि उदै हरत अति तम भ्रम श्रमचित ।
आनन्द कंद श्रीनंद सुत श्रीवृषभानु सुता भजन ।
श्री भट्ट सुभट प्रगट्यो अघट रस रसिकन मनमोद घन ।

भक्तमाल

२-परिखा प्रति चहुं दिसि लसत कंचन कोटि प्रकास।
विविध भांति नग जगमगत प्रति गोपुर पुरवास।
दिव्य फटिक मय कोट की शोभा कहि न सिराय।
चहुं दिसि अदभुत जोति मैं जगमगाति सुखदाय।

इनकी भाषा के विषय में कुछ अधिक लिखने की आवश्यकता मुझे नहीं ज्ञात होती। जो नियम साहित्यिक ब्रजभाषा का मैं ऊपर लिख आया हूं उसका पालन इनकी कविता में अधिकतर पाया जाता है। इनकी रचनामें अनुप्रासों एवं ललित पद-विन्यास की भी छटा है । पद्यमें संस्कृत के तत्सम शब्द भी आये हैं। परन्तु वे अधिकतर ऐसे हैं जो मधुर और कोमल कहे जा सकते हैं। इनकी रचना को देखने से यह ज्ञात होता है कि उत्तम वर्णके न होनेपर भी ये सुशिक्षित थे और ऐसा सत्संग उनको प्राप्त था जिसने उनके हृदय को भक्तिमान और भावुक बना दिया था। किसी किसी ने उनको अछूत जाति का लिखा है, और किसी ने यह लिखकर उनकी जाति-पाँति बताने में आनाकानी की है कि हरि-भक्तों की जाति नहीं पूछी जाती। वे जो हों, परन्तु वे भक्त थे और जैसा भक्त का हृदय होना चाहिये वैसाही उनका हृदय था, जो उनकी रचनाओंमें स्पष्ट प्रतिबिंबित है।

नाभादासजी के बाद हमारे सामने एक बड़े ही सरस हृदय कवि आते हैं। वे हैं रसखान। ये मुसल्मान थे और इन्हों ने अपने को राजवंशी बतलाया है। नीचे के दोहे इस बात के प्रमाण हैं:--

देखि गदर, हित साहिबी, दिल्ली नगर मसान ।
छिनहिं बादसा बंस की, ठसक छोड़ि रसखान ।