पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/३४५

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२-या लकुटी अरु कामरिया पर
राज तिहूं पुर को तजि डारौं।
आठहुँ सिद्धि नवो निधि को
सुख नन्द की गाइ चराइ बिसारौं ।
आँखिन सो रसखान कर
व्रज के बन बाग तड़ाग निहारौं ।
कोटिन हूं कलधौत के धाम
करील के कुजन ऊपर वारौं ।

मगवान कृष्णचन्द्र को देवादिदेव कह कर भी उन्होंने उन्हें किस प्रकार प्रेम के वश में बतलाया है. इसको यह पद्य भली भाँति प्रकट कर रहा है:-

"सेस गनेस महेस दिनेस सुरेसहुँ
जाहि निरन्तर गावें ।
जाहि अनादि अनन्त अखंड
अछेद अभेद सुबेद बतायें ।
जाहि हिये लखि आनँद जड़।
मूढ़ जनौ रमखान कहावैं।
ताहि अहीर की छोहरियाँ छछिया
भरि छाछ पे नाच नचावें ।'

रसखान की भाषा चलती और साफ सुथरी है। जिनने पटा उन्होंने बनायें हैं उनसे रस निचुड़ा पड़ता है। निम्मंदह ब्रजमापा ही में उनकी कविता लिग्बी गयी है। परन्तु खड़ी बोली के भी कोई कोई शान में मिल जाते हैं। इसी प्रकार अवधी के भी।