पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/३४८

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इनको भाषा प्राञ्जल ब्रजभाषा है। इसमें कभी कभी कोई अपरिमा- जित शब्द आ जाता है. परन्तु उससे इनकी भाषा की विशेषता नहीं नष्ट होती । बनारसी दास ही ऐसे जैन कवि हैं जिन्होंने व्रजभाषा लिखनेमें पूरी सफलता लाभ को। इनकी गणना प्रतिष्ठित व्रजभापा-कवियों में की जा सकती है। इनकी रचना इस बात का भी प्रमाण है कि सत्रहवीं सदी में ब्रजभाषा इतनी प्रभावशालिनी हो गयी थी कि अन्य धर्मवाले भी उसमें अपनी रचनायें करने लगे थे।


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इस सत्रहवीं शताब्दी में रीति ग्रन्थकार बहुत अधिक हुये । और उन्होंने शृंगार रस, अलंकार और अन्य विषयों की इतनी अधिक रचनायें की, कि ब्रजभाषा-साहित्य श्री सम्पन्न हो गया। यह अवश्य स्वीकार करना पड़ेगा कि रीति ग्रन्थकारों ने शृंगार रस को ही अधिक प्रश्रय दिया परन्तु यह समय का प्रभाव था। यह शताब्दी जहांगीर और शाहजहाँ के राज्य-काल के अन्तर्गत है. जो विलासिता के लिये प्रसिद्ध है। जैसे मुसल्मान बादशाह और उनके प्रभावशाली अधिकारीगण इस समय बिला- सिता-प्रवाह में बह रहे थे वैसे ही इस काल के राजे और महाराजे भी । यदि मुस्लिम दरबार में आशिकाना मज़ामीन और शाइरी का आदर था तो राजे-महाराजाओं में रसमय भावों एवं बिलासितामय वासनाओं का सम्मान भी कम न था। ऐसी अवस्था में यदि शृंगार रसके साहित्य का अधिक विकास हुआ तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। ज्ञान विराग योग इत्यादि में एक प्रकार की नीरसता सर्व-साधारण को मिलती है । उसके अधिकारी थोड़े हैं। शृंगार रस की धारा ही ऐसी है जिसमें सर्व- साधारण अधिक आनन्द लाभ करता है, क्योंकि उसका आस्वादन जैसा मोहक और हृदयाकर्षक है. वैसा अन्य रसों का नहीं। स्त्री-पुरुषों के परस्पर सम्मिलन में जो आनन्द और प्रलोभन है बाल बच्चों के प्यार और प्रेम में जो आकर्षण है उसमें ही सांसारिकता और स्वाभाविकता अधिक है। प्राणीमात्र इस रस में निमग्न है। परमार्थ का आनन्द न इतना व्यापक है और न इतना मोहक, चाहे वह उच्च कोटि का भले ही हो । आहार-विहार. स्त्री-पुत्रों का स्नेह और उससे उत्पन्न आनंदानुभव पशु-