पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/३५२

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फूलन सों बाल की बनाइ गुही बेनी लाल,
भालदीनी बेंदी मृगमद की असित है।
अंग अंग भूषन बनाइ ब्रजभूषन जू
बीरी निज कर की खवाई अतिहित है।
है कै रस-बस जब दीबे को महावर के
सेनापति श्याम गह्यो चरन ललित है।
चूमि हाथ नाथ के लगाइ रही आँखिन सों
कही प्रानपति यह अति अनुचित है।

अब कुछ ऐसे पद्य देखिये जो ऋतु वर्णन के हैं, इनमें कितनी स्वाभाविकता, सरसता और मौलिकता है, उसका अनुभव स्वयं कीजिये:-

कातिक की राति थोरी थोरी सियराति
सेनापति को सुहाति सुखीजीवनकेगन हैं
फूले हैं कुमुद फुली मालती सघन बन
फूलि रहे तारे मानो मोती अनगन हैं।
उदित विमल चंद्र चांदनी छिटिक रही
राम कैसो जस अध ऊरध गगन है।
तिमिर हरन भयो सेत है बरन सब
मानहुं जगत छीर सागर मगन है।
सिसिर मैं ससि को सरूप पावै सविताऊ
घामहूं मैं चांदनी की दुति दमकति है।
सेनापति होती सीतलता है सहस गुनी
रजनी की झांई बासर में झमकति है।
चाहत चकोर सर ओर दृगछोर करि
चकवा की छातीधरि धीर धमकति है।