पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/३५४

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सरस शब्द-विन्यास की आवश्यकता होती है। उसी प्रकार मनोहर भाव- व्यंजना की भी । भाषा के विकास से दोनों का सम्बन्ध है। इस बात के प्रकट करने के लिये ही उनकी कविता कुछ अधिक उठाई गई । सेनापति की भाषा साहित्यिक व्रजभाषा है। हम उनकी भाषा को टकसाली कह सकते हैं। न तो उनकी रचना में खड़ी बोलो की छूत लग पायी है न अवधी के शब्दों का ही प्रयोग उनमें मिलता है। कहीं दो एक इस प्रकार के शब्दों का मिल जाना कवि के भाषाधिकार को लांछित नहीं करता। व्रजमाषा की पूर्व कथित कसौटी पर कसकर यदि आप देखेंगे तो सेनापति की भाषा बावन तोले पाव रत्ती ठीक उतरेगी। मैं स्वयं यह कार्य करके विस्तार नहीं करना चाहता। समस्त पदों से वे कितना बचते हैं, और किस प्रकार चुन चुन कर संस्कृत तत्सम शब्दों को अपनी रचना में स्थान देते हैं इस बात को आप ने स्वयं पद्यों को पढ़ते समय समझ लिया होगा। वे शब्दों को तोड़ते-मरोड़ते भी नहीं। दोषों से बचने की भी वे चेष्टा करते हैं । ये बातें ऐसी हैं जो उनको कविता को बहुत महत्व प्रदान करती हैं। उनके नौ पद्य उठाये गये हैं। उनमें से एक पद्य में ही एक शब्द द्यौस' ऐसा आया है जिसको हम विकृत हुआ पाते हैं। परन्तु यह ऐसा शब्द है जो व्रजभाषा की रचनाओं में गृहीत है। इसलिये इस शब्द को स्वयं गढ़ लेने का दोष उन पर नहीं लगाया जा सकता । किसी कविता का सर्वथा निर्दोष होना असंभव है। फिर भी यह कहा जा सकता है कि साहित्यिक दोषों से उनकी कविता अधिकतर सुरक्षित है। इससे यह पाया जाता है कि उनकी कविता कितनी प्रौढ़ है। उनकी कविता की अन्य विशेषताओं पर मैं पहले ही दृष्टि आकर्षित करता आया हूं। इसलिये उसपर कुछ और लिखना वाहुल्य मात्र है। इनके जिन दो ग्रन्थों की चर्चा मैं ऊपर कर आया है उनमें से 'कवित्त रत्नाकर' अलंकार और काव्य की अन्य कलाओं के निरूपण का सुंदर ग्रन्थ है। काव्य-कल्पद्रुम' में उनकी नाना-रसमयो कविताओं का संग्रह है। दोनों ग्रन्थ अनूठे हैं और उनकी विशेषता यह है कि घनाक्षरी अथवा कवित्तों में ही वे लिखे गये हैं। कुछ दोहों को छोड़ कर दूसरा कोई छंद उसमें है ही नहीं।


(२)बिहारीलालका ग्रंथ व्रजभाषासाहित्य का एक अनूठा रत्न है और