पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/३५९

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यह शेर भी बड़ा हो सुन्दर है। परन्तु भाव प्रकाशन किस में किस कोटि का है इसको प्रत्येक सहृदय स्वयं समझ सकता है। भावुक भक्त कमी कभी मचल जाते हैं और परमात्मा से भी परिहास करने लगते हैं। ऐसा करना उनका विनोद-प्रिय प्रेम है असंयत भाव नहीं। 'प्रेम लपेटे अटपटे बैन' किसे प्यारे नहीं लगते । इसी प्रकार को एक उक्ति बिहारो की देखिये। वे अपनी कुटिलता को इसलिये प्यार करते हैं। जिसमें त्रिभंगीलाल को उनके चित्त में निवास करने में कष्ट न हो, क्योंकि यदि वे उसे सरल बनालेंगे तो वे उसमें सुख से कैसे निवास कर सकेंगे ? केसा सुन्दर परिहास है। वे कहते हैं:-

करौ कुबत जग कुटिलता तजौं न दीन दयाल ।
दुखी होहुगे सरल चित बसत त्रिभंगी लाल ।

परमात्मा सच प्रेम से ही प्राप्त होता है। क्योंकि वह सत्य स्वरूप है। जिसके हृदय में कपट भरा है उसमें वह अन्तर्यामी कैसे निवास कर सकता है जो शुद्धता का अनुरागी है ? जिसका मानस-पट खुला नहीं। उससे अन्तर्पट के स्वामी से पटे तो कैसे पटे ? इस विषय को बिहारो लाल देखिये कितने सुन्दर शब्दों में प्रकट करते हैं:-

तौ लगि या मन मदन में हरि आचैं केहि बाट ।
बिकट जटे जो लौं निपट खुलै न कपट कपाट ।

अब कुछ ऐसे पद्य देखिये जिनमें विहारीलाल जोने मांसारिक जीवन के अनेक परिवर्तनों पर सुन्दर प्रकाश डाला है:--

यद्यपि सुंदर सुघर पुनि सगुनौ दीपक देह।
नऊ प्रकास करै तितो भरिये जितो सनेह ।
जो चाहै चटकन घरै मैलो होय न मित्त ।
रज राजस न छुवाइये नेह चीकने चित्त ।
अति अगाध अति अथरो नदी कूप सर बाय ।