पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/३६१

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चाहता हूं कि कला की दृष्टि से 'बिहारी सतसई' अपना उदाहरण आप है। कुछ लोगों ने बिहारी लाल की श्रृंगार सम्बन्धी रचनाओं पर व्यंग भी किये हैं और इस सूत्र से उनकी मानसिक वृत्ति पर कटाक्ष भी। मत भिन्नता स्वाभाविक है और मनुष्य अपने विचारों और भावों का अनुचर है। इसलिये मुझ को इस विषय में अधिक तर्क-वितर्क वांछनीय नहीं । परन्तु अपने विचारानुसार कुछ लिख देना भी संगत जान पड़ता है।

बिहारीलाल पर किसी किसी ने यह कटाक्ष किया है कि उनको दृष्टि सांसारिक भोग-विलास में ही अधिकतर वद्ध रही है। उन्होंने सांसारिक वासनाओं और विलासिताओं का सुंदर से सुंदर चित्र खींच कर लोगों को दृष्टि अपनी ओर आकर्षित की । न तो उस सत्य शिवं सुन्दरं' का तत्व समझा और न उसकी अलौकिक और लोकोत्तर लोलाओं और रहस्यों का अनुभव प्राप्त करने की यथार्थ चेष्टा की। वाह्य जगत् से अन्तर्जगत् अधिक विशाल और मनोरम है। यदि वे इसमें प्रवेश करते तो उनको वे महान् रत्न प्राप्त होते जिनके सामने उपलब्ध रत्न कांच के समान प्रतीत होते । परन्तु मैं कहूंगा न तो उन्हों ने अन्तर्जगत से मुहमोड़ा और न लोकोत्तरकी लोकोत्तरतासही अलग रहे । क्या स्त्रीका सौन्दर्य सत्यं शिवं सुन्दरम्' नहीं है ? कामिनी-कुलके सौन्दर्य में क्या ईश्वरीय विभूतिका विकास नहीं ? क्या उनकी सृष्टि लोक-मङ्गलकी कामनासे नहीं हुई ? क्या उनके हाव-भाव, विभ्रम-विलास लोकोपयोगी नहीं ? क्या विधाता ने उनमें इस प्रकार की शक्तियां उत्पन्न कर प्रवंचना की? और संसार को भ्रान्त बनाया ? मैं समझता हूं कि कोई तत्वज्ञ इसे न स्वीकार करेगा। यदि यह सत्य है कि संसार की रचना मङ्गलमयी है, तो इस प्रकार के प्रश्न हो हो नहीं सकते। जो परमात्मा की विभूतियां विश्व के समस्त पदार्थों में देखते हैं और यह जानते हैं कि परमात्मा सच्चिदानन्द है वे संसार की मङ्गलमयी और उपयोगी कृतियों को बुगे दृष्टि से नहीं देख सकते। यदि विहारीलाल ने स्त्री के सौन्दय-वर्णन में उच्च कोटि की कवि- कल्पना से काम लिया, उनके नाना आनन्दमय भावों के चित्रण में अपूर्व कौशल दिखलाया, मानस की सुकुमार वृत्तियों के निरूपण में सच्ची भावुकता