पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/३६३

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नितान्त अल्प है। ऐसे ही भाषागत और भी कुछ दोप उसमें मिलते हैं। किन्तु उनके महान भाषाधिकार के सामने वे सब नगण्य हैं। वास्तव बात तो यह है कि उन्होंने अपने ७०० दोहों में क्या भाषा और क्या भाव, क्या सौन्दर्य, क्या लालित्य सभी विचार से वह कौशल और प्रतिभा दिख- लायी है कि उस समय तक उनका ग्रन्थ समादर के हाथों से गृहीत होता रहेगा जब तक हिन्दी भाषा जीवित रहेगी ।।

बिहारी लाला के सम्बन्ध में डाक्टर जीः ए: ग्रियर्सन की सम्मति नीचे लिखी जाती है:-

“इस दुरूह ग्रन्थ (बिहारी सतसई) में काव्य-गत परिमार्जन, माधुर्य्य और अभिव्यक्ति-सम्बन्धी विदग्धता जिस रूप में पाई जाती है वह अन्य कवियों के लिये दुर्लभ है। अनेक अन्य कवियों ने उनका अनुकरण किया है, लेकिन इस विचित्र शैलो में यदि किसी ने उल्लेख-योग्य सफलता पायो है तो वह तुलसीदास हैं, जिन्होंने बिहारी लाल के पहले सन् १५८५ में एक सतसई लिखी थी। बिहारी के इस काव्य पर अगणित टीकायें लिखी गई हैं। इसकी दुरूहता और विदग्धता ऐसी है कि इसके अक्षरों को कामधेनु कह सकते हैं"। १

३–त्रिपाठी बन्धुओं में मतिराम और भूषण विशेष उल्लेख योग्य हैं। इनके बड़े भाई चिन्तामणि थे और छोटे नीलकंठ उपनाम जटाशंकर । | The elegance, poetic flavour, and ingenuity of Expression in this difficult work, are considered to have been unapproached by any other poet. He has been imitated by numerous other poets, but the only one who has achieved any considerable excellence in this pecu- liar style is Tulsidas (No 128) who preceded him by writing a Sats- ai ( trcating of Ram as Bihari Lall's treated of Krishna ) in the year 1585A. D. ................

Behari's poem has been dealt with by innumerable commentatorso Its difficulty and ingenuity one : 0 great that it is called a veritable: 'Akshar Kamdhenu.'

Modern Vernacular Literature of

Hindustan P.75