पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/३६७

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ज्यों ज्यों निहारिये नेरे हवै नैननि
त्यों त्यों खरी निकरै सुनिकाई ।
चरन धरै न भूमि बिहरै तहांई जहाँ
फूले फूले फूलन बिछायो परजंक है।
भार के डरनि सुकुमारि चारु अंगनि मैं
करति न अंगराग कुंकुम को पंक है।
कहै मतिराम देखि वातायन बीच आयो
आतप मलीन होत बदन मयंक है ।
कैसे वह बाल लाल बाहर विजन आवै
बिजन बयार लागे लचकति लंक है।

मतिराम को कोमल और सग्स शब्द माला पर किस प्रकार भाव- लहरी अठखेलियां करती चलती है' इसे आप ने देख लिया। उनके सीधे सादे चुने शब्द कितने सुंदर होते हैं. वे किस प्रकार कानों में सुधा वर्षण करते, और कसे हृदय में प्रवेश करके उसे भाव-विमुग्ध बनाते हैं, इसका आनंद भी आप लोगों ने लेलिया। वास्तव बात यह है कि जिन महाकवियों ने ब्रजभाषा की धाक हिन्दी साहित्य में जमादी उनमें से एक मतिराम भी हैं। मिश्रबन्धुओं ने इनकी गणना नव-पत्रों में की है। मैं भी इससे सहमत हूं। इनकी भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है, परंतु उसमें उन्होंने ऐसी मिठास भरी है जो मानसों को मधुमय बनाये बिना नहीं रहती। साहित्यिक व्रजभाषा के लक्षण मैं ऊपर बतला आया हूं। उनपर यदि इनकी रचना कसो जावे तो उसमें भाव और भाषा-सम्बन्धी महत्ताओं की अधिकता ही पायी जायगी न्यूनता नहीं। उन्होंने जितने प्रसून ब्रज- भाषा देवी के चरणों पर चढ़ाये हैं, उनमें से अधिकांश सुविकसित और सुरभित हैं और यह उनकी सहृदयता को उल्लेखनीय विशेषता है।


वीर ह्रदय भूषण इस शताब्दी के ऐसे कवि हैं जिन्होंने समयानुकूल वीर रस-धारा के प्रवाहित करने में ही अपने जीवन की चरितार्थता समझी