पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/३६८

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जब उनके चारों ओर प्रवल वेग से शृंगार रस की धारा प्रवाहित हो रही थी उस समय उन्होंने वीर रस की धारा में निमग्न हो कर अपने को एक विलक्षण प्रतिभा सम्पन्न पुरुष प्रतिपादित किया। ऐसे समय में भी जब देशानुराग के भाव उत्पन्न होने के लिये वातावरण बहुत अनुकूल नहीं था, उन्होंने देश-प्रेम-सम्बन्धी रचनायें करके जिस प्रकार एक भारत-जननी के सत्पुत्र को उत्साहित किया उसके लिये कौन उनकी भूयसी प्रशंसा न करेगा ? यह सत्य है कि अधिकतर उनके सामने आक्रमित धर्म की रक्षा ही थी और उनका प्रसिद्ध साहसी वीर धर्म-रक्षक के रूप में ही हिन्दू जगत के सम्मुख आता है। परन्तु उसमें देश प्रेम और जाति-रक्षा की लगन भी अल्प नहीं थी। नीचे की पंक्तियां इसका प्रमाण है. जो शिवाजी की तलवार की प्रशंसा में कही गयी हैं:---

तेरो करवाल भयो दच्छिन को ढाल भयो हिन्द को दिवाल भयो काल तुरकान को

इसी भाव का एक पूरा पद्य देखियेः--

राखी हिंदुआनी हिंदुआन को तिलक राख्यो अस्मृति पुरान राखे वेद विधि सुनी मैं।
 राखी रजपूती राजधानी राखी राजन की धरा में धरम राख्यो राख्यो गुन गुनी मैं ।
भूषन सुकवि जीति हद्दमरहठ्ठन की देस देस कीरति बखानी तव मुनी मैं ।
साह के सपूत सिवराज समसेर तेरो दिल्ली दल दाषिके दिवाल राखी दुनी मैं ।

भूषण की जितनी रचनायें हैं वे सब वीर रस के दर्प से दर्पित हैं। शृंगार रस की ओर उन्हों ने दृष्टिपात भी नहीं किया । देखिये, नीचे के पद्यों की पदावली में धर्मरक्षा की तरंग किस प्रकार तरंगायमान है: