सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/३७६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(३६२)

सोई देह देह जामैं पुलकित रोम होत,

सोई पाँव पाँव जाते तीरथनि जाइये ।

सोई नेम नेम जे चरन हरि प्रीति बाढ़ै

सोई भाव भाव जो गुपाल मन भाइये ।

२-दान सुधा जल सों जिन सींचि

सतो गुन बीच बिचार जमांयो ।

बाढ़ि गयो नभ मण्डल लौं महि

मण्डल घेरि दसो दिसि छायो ।

फूल घने परमारथ फूलनि

पुन्य बड़े फल ते सरसायो ।

कीरति वृच्छ बिसाल गुपाल

सु कोबिद बृन्द विहंग बसायो।

इनकी कविता की भाषा साहित्यिक व्रजभाषा है और उसमें मधुरता के साथ प्रांजलता भी है।

(•) सुखदेवमिश्र की गणना हिन्दी के आचार्यों में है। उन्होंने रीति ग्रन्थों की रचना बड़े पांडित्य के साथ की है। वे संस्कृत और भाषा दोनों के बड़े विद्वान थे । उनके 'वृत्तविचार . रसार्णव'. 'श्रृंगारलता' और नखशिख' आदि बड़े सुन्दर ग्रन्थ हैं । उनका अध्यात्म-प्रकाश प्रसिद्ध ग्रन्थ है। अनेक राज्य दरबारों में उनका सम्मान था । उन्हें कविराज को पदवी मिली थी। उनकी रचनायें प्रौढ़, काव्य-गुणों से अलंकृत. और साहित्यिक ब्रजभाषा के आदर्श-स्वरूप हैं। कुछ पद्य देखिये।

जोहै जहाँ मगु नन्द कुमार तहाँ

चली चन्दमुखी सुकुमार है ।

मोतिन ही को कियो गहनों सब

फूल रही जनु कुन्द की डार है ।