है, उसे सभो कवि-जीवनी लेखकों ने बड़ा अद्भुत बतलाया है । वास्तव में कालिदास बड़े सहृदय कवि थे । उनकी रचनायें एक सुविकसित सुमन के समान मनोहर और सुधानिधि की कला के समान कमनीय हैं । उनकी रचना की रसीली भाषा इस बात का सनद ब्रजभाषा को देती है कि वह सरस से सरस है:-
चूमौ करकंज मंजु अमल अनूप तेरो,
रूप के निधान कान्ह मोतन निहारि दै ।
कालिदास कहै मेरी ओर हरे हेरि हरि,
माथे धरि मुकुट लकुट कर डारि दै ।
कुंवर कन्हैया मुखचंद की जुन्हैया चारु,
लोचन चकोरन की प्यासन निवारि दै ।
मेरे कर मेंहदी लगी है नंद लाल प्यारे,
लट उरझी है नेक बेसर सुधारि दै ।
हाथ हंसि दीन्हों भीति अंतर परसि प्यारी,
देखत ही छकी मति कान्हर प्रवीन की ।
निकस्यो झरोखे मांझ बिगस्यो कमल सम.
ललित अंगूठी तामैं चमक चुनीन की ।
कालिदास तैसी लाली मेँहदी के बुंदन की,
चारु नखचंदन की लाल अँगुरीन की ।
कैसी छबि छाजत है छाप के छलान की
सुकंकन चुरीन की, जड़ाऊ पहुंचीन की।
(९) आलम रसखानके समानही बड़े ही सरसहृदय कवि थे । कहाजाता
है कि ये ब्राह्मण कुल के बालक थे। परंतु प्रेम के फंदे में पड़ कर अपने
धर्म को तिलांजली देदी थी। शेख नामक एक मुसल्मान स्त्री सरसहृदया
कवि थी । उसके रस से ये ऐसे सिक्त हुये कि अपने धर्म को भी उसमें