पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/३८

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में दिये हैं। उनकी भाषा मागधी ही थी, क्योंकि मगध प्रान्त ही उनकी लीला भूमि थी। बुद्धदेवके समस्त उपदेश पहले पाली भाषा में ही लिखे मिलते हैं, वरन् कहा जाय तो यह कहा जा सकता है, कि वौद्ध साहित्य का प्रधान और सर्वमान्य वृहदंश पालि ही में मिलता है, ऐसी दशा में दोनों भाषाओं का अभेद स्वीकार करना ही पड़ता है। किन्तु पाली जब मागधी नाम ग्रहण करती है, तब अपनी व्यापकता खो कर सीमित हो जाती है। पाली ही ऐसी प्राकृत है, जो वैदिक भाषा की अधिकतर निकटवर्ती है, इसीलिये उसको आप प्राकृत का अन्यतम रूप कहा जाता है। अन्य प्राकृत भाषायें उसके बाद की हैं—कुछ प्रमाण पालि प्रकाश ग्रन्थ से नीचे दिये जाते हैं -

अकागन्त शब्द के तृतीया बहुबचन में पालि भाषामें केवल विसर्ग मात्रका त्याग करके वैदिक प्रयोग ही रक्षित रहता है। यथा-देवेभिः प्रयोग के स्थान में पालि में देवेभि और विकल्प में भ के स्थान पर ह का प्रयोग करके देवेहि पद बनता है, किन्तु प्राकृत में भ का प्रयोग विल्कुल लुप्त हो जाता है, केवल देवेहि रह जाता है, आगे चल कर वह देवेहि और देवेहि भी हो जाता है।

क्लीव लिंग चित्त शब्द का प्रथमा वहुवचन पालि में चित्ता और चित्तानि दोनों होता है, और यह दोनों रूप ही वेद मूलक हैं। जैसे विश्वा और विश्वानि (ऋ० १०, १६९, ३) परन्तु बाद की प्राकृतिक भाषाओं में ऐसा व्यवहार नहीं होता, उन में चित्तानि, चित्ताई चित्ताई आदि पाया जाता है।

शानच् प्रत्यय के स्थान पर पालि में प्राचीन वैदिक भाषा के अनुसार आन और मान दोनों प्रत्यय ही प्रयुक्त होते हैं जैसे भुञ्ज से भुञ्जान और भुञ्जमान दोनों रूप बनता है, किन्तु प्राकृत में केवल मान अथवा माणका प्रयोग होता है। इसका एक मात्र कारण यही है, कि प्राकृत.मूल भाषा से पालि की अपेक्षा बहुत दूर हट गई, और इस कारण समस्त रूपोंको रक्षित न रख सकी।