पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/३९०

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बाहरु धोइ अंतरु मन मैला दुइ ओर अपने खोये ।
इहाँ काम क्रोध मोह व्यापा आगे मुसि मुसि रोये।
गोविंद भजन की मति है होरा।।
बरमी मारी साँप न मरई नामु न सुनई डोरा ।
माया की कृति छोड़ि गंवाई भक्तीसार न जानै ।
वेद सास्त्र को तरकन लागा तत्त्व जोगु न पछानै ।
उघरि गया जैसा खोटा ढेवुआ नदरि सराफा आया।
अंतर्यामी सब कछु जानै उस ते कहा छपाया ।
कूर कपट बंचन मुनियाँदा बिनसि गया ततकाले।
सति सति सति नानक कह अपने हिरदै देखु समा ले।
२-बंधन काटि बिसारे औगुन अपना विरद समाया।
होइ कृपाल मात पित न्याई बारक ज्यों प्रति पाया।
गुरु सिष राखे गुरु गोपाल।
लोये काढ़ि महा भव जल ते अपनी नदर निहाल ।
जाके सिमरणि जम ते छुटिये हलति पलति सुख पाइये ।
सांसि गेरासि जपहु जप रसना नीति नीति गुण गाइये।
भगती प्रेम परम पद पाया साधु संग दुख नाटे।
छिजै न जाइन किछु भव व्यापै हरि धनु निरमल गाँठे।
अन्तकाल प्रभु भये सहाई इत उत राखन हारे ।
प्रान मीत हीत धन मेरे नानक सद बलिहारे।

गुरु अर्जु नदेव सत्रहवीं शताब्दी के आदि में थे। उनकी रचनाये उसी समय की हैं। मैं यह कह सकता हूं कि वह परमार्जित व्रजभाषा नहीं है, परन्तु यही भाषा गुरु गोबिन्दसिंह के समय में अपने मुख्य रूपमें दृष्टिगत होती है। गुरु गोविन्दसिंह ने दशम ग्रन्थ में विष्णु के चौबीस