पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/३९४

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१-रारि पुरंदर कोपि कियो इत
जुद्ध को दैतंं जुरे उत कैसे ।
स्थाम घटा घुमरी घन घोर कै
घेरि लियो हरि को रवि तैसे।
सक कमान के बान लगे सर
फोंक लसै अरि के उर ऐसे ।
मानो पहार करार में चोंच
पसार रहे सिसु सारक जैसे ।
मोन मुरझाने कंज खंजन खिसाने
अलि फिरत दिवाने बन डोलैं जित तित ही
कीर औ कपोत बिंब कोकिला कलापी
बन लूटे फूटे फिरैं मन चैन हैन कितहीं।
दारिम दरकि गयो पेखि दसनन पाँति
रूप ही की काँति जग फैलि रहो सित ही।
ऐसी गुन सागर उजागर सुनागर है लीनो
मन मेरो हरि नैन कोर चित ही ।

३-चतुरानन मो बतिया सुन लै
सुनि के दोउ श्रौननि में धरिये ।
उपमा को जबै उमगै मन तो
उपमा भगवानहिं की करिये ।
परिये नहीं आन के पांयन
पै हरि के गुरु के द्विज के परिये।
जेहि को जुग चारि मैं नाम जप्यो
तेहि सों लरिये, मरिये, तरिये ।