पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/३९८

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ए घरहाई लुगाई सबै निसि
द्यौस नेवाज हमें दहती हैं ।
बातें चबाव भरा सुनि कै
रिसिआवत पै चुप है रहती हैं।
कान्ह पियारे तिहारे लिये
सिगरे व्रज को हँसियो सहती हैं।

(२) आगे तो कीन्हीं लगा लगी लोयन
कैसे छिपै अजहू जो छिपावत ।
तु अनुराग को सोध कियो
व्रज की बनिता सबयों ठहरावत ।
कौन सकोच रह्यो है नेवाज
जौ तू तरसै उनहूं तरसावत ।
बावरी जो पै कलंक लग्यौ तो
निसंक है क्यों नहीं अंक लगावत ।

(२)

अठारहवीं शताब्दी प्रारंभ करने के साथ सब से पहले हमारी दृष्टि महाकवि देवदत्त पर पड़ती है। जिस दृष्टि से देखा जाय इनके महाकवि होने में संदेह नहीं। कहा जाता है इन्होंने वहत्ता ग्रंथों की रचना की। हिन्दी भाषा के कवियों में इतने ग्रंथों को रचना और किसो ने भी की है. इसमें संदेह है। इन के महत्व और गौरव को देख कर ब्राह्मण जाति के दो विभागों में अब तक द्वंद चल रहा है। कुछ लोग सनाढ्य कह कर इन्हें अपनी ओर खींचते हैं और कोई कान्यकुब्ज कह कर इन्हें अपना बनाता है। पंडित शालग्राम शास्त्री ने. थोड़े दिन हुये, 'माधुरी' में एक लम्बा लेख लिख कर यह प्रतिपादित किया है कि महाकवि देव सनाढ्य थे। मैं इस विवाद को अच्छा नहीं समझता। वे जो हों, किन्तु हैं ब्राह्मण जाति के