पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/४०६

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(३९२)

(९) संपति मैं ऐंठि बैठे चौतरा अदालति के
बिपति में पैन्हि बैठे पाँय झन झुनियां।
जे तो सुख संपति तितोई दुख बिपति मैं
संपति मैं मिरजा विपति परे धुनियां।
संपति ते बिपति विपति हूं ते संपति है
संपति औ विपति बराबरि कै गुन्निया।
संपति मैं कांय कांय विपति मैं भांय भांय
कांय कांय भांय भांय देखी सब दुनियां।
(१०)—आई बरसाने ते वुलाई वृषभानु सुता
निरखि प्रभानि प्रभा भानुको अथै गयी।
चक चकवान के चकाये चक चोटन सों
चौंकत चकोर चकचौंधी सी चकै गयी।
देव नन्द नन्दन के नैनन अनन्दमयी।
नन्द जू के मंदिरनि चंदमयी छै गयी।
कंजन कलिनमयी कुजन नलिन मयी।
गोकुल की गलिन अलिनमग्री के गये।
(११)—औचक अगाध सिंधु स्याही को उमड़ि आयो
तामैं तीनों लोकड़ि गये एक संग मैं।
कारे कारे आखर लिखे जु कारे कागर
सुन्यारे करि बाँचे कौन जांचे चित भंग में
आंखिनि मैं तिमिर अमावस की रैनिजिमि
जम्बू जल वुद जमुना जल तरंग मैं।
यों हो मन मेरो मेरे काम को न रह्यो माई
स्याम रङ्ग ह्वै करि समायो स्याम रङ्ग मैं।