पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/४०७

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१२—रीझि रीझि रहसि रहसि हँसि हँसि उठै,
सांसैँ भरि आँसू भरि कहति दई दई।
चौंकि चौंकि चकि चकि उचकि उचकि देव
जकि जकि बकि बकि परति बई बई।
दुहुँन को रूप गुन दोउ बरनत फिरैं
घर न थिराति रीति नेह की नई नई।
मोहि मोहि मन भयो मोहन को राधिका मै
राधिका हूं मोहि मोहि मोहनमयी भई।
१३—जबते कुँवर कान्ह रावरी कलानिधान
कान परी वाके कहूं सुजस-कहानी सी।
तब ही ते देव देखी देवतासी हँसति सी
खीझति सी रीझति सी रूसति रिसानी सी।
छोही सी छली सी छीनि लीनी सी छकी सी छिन
जकी सी टकी सी लगी थकी थहरानीसी।
बीधी सी बिधी सी बिष बूड़ी सी बिमोहित सी
बैठी बाल बकति बिलोकति बिकानी सी।
१४—देखे अनदेखे दुख दानि भये सुखदानि
सूखत न आँसू सुख सोइबो हरे परो।
पानि पान भोजन सुजन गुरुजन भूले
देव दुरजन लोग लरत खरे परो।
लागो कौन पाप पल एकौ न परति कल
दूरि गयो गेह नयो नेह नियरे परो।
हो तो जो अजान तौ न जानतो इतीकु विथा
मेरे जिये जान तेरो जानिबो गरे परो।