पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/४०८

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१५—तेरो कह्यो करि करि जीव रह्यो जरि जरि}
हारी पाँय परि परि तऊ तैं न का सम्हार।
ललन बिलोके देव पल न लगाये तब
यों कल न दीनी तैं छलन उछलनहार।
ऐसे निरमोही सों सनेह वाँधि हौं बँधाई
आपु विधि बूड्यो मांझ वाधा सिंधु, निराधार
एरे मन मेरे तैं घनेरे दुख दीने अब
ए केवार दैकै तोहिं मूंदि मारौं एक बार।

देव की भाषा साहित्यक ब्रजभाषा है और उनकी लेखनी ने उसमें साहित्यिकता की पराकाष्ठा दिखलायी है। उनकी रचनाओं में शब्द लालित्य नर्तन करता दृष्टिगत होता है। और अनुप्रास इस सरसता से आते हैं कि अलंकारों को भी अलंकृत करते जान पड़ते हैं; यह मैं स्वीकार करूंगा कि उन्होंने कहीं कहीं अनुप्रास, यमक आदि के लोभ में पड़ कर ऐसे शब्दों का प्रयोग किया है जो गढ़े अथवा तोड़े-मोरोड़े जान पड़ते हैं। परन्तु वे बहुत अल्प हैं और उनकी मनोहर रचना में आकर मनोहरता ही ग्रहण करते हैं अमनोहर नहीं बनते। ब्रजभाषा के जितने नियम हैं उनका पालन तो उन्होंने किया ही है, प्रत्युत उसमें एक ऐसी सरस धारा भी बहा दो है जो बहुत ही मुग्ध करी है और जिसका अनुकरण बाद के कवियों ने अधिकतर किया है। उनकी रचनाओं में अन्य प्रान्तों के भी शब्द मिल जाते हैं, इसका कारण उनका देशाटन है। परंतु वे उनमें ऐसे बैठाले मिलते हैं जैसे किसी सुन्दर स्वर्णभरणमें कोई नंग। इसमें को सन्देह नहीं कि कविवर देवदत्त महाकवि थे और उनकी रचनाओं में अधिकांश महाकवि कीसी महत्तायें मौजूद हैं॥

इस शताब्दी में देव के अतिरिक्त भिखारी दास. श्री पति, कवीन्द्र गुमान मिश्र, रघुनाथ, दूलह, तोष और रसलीन ये आठ प्रधान रीति ग्रंथकार हुये हैं। ये सव ब्रजभाषा के कवि हैं, परन्तु प्रत्येक में कुछ न कुछ