पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/४१२

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दृष्टि है। फिर भी वैदर्भी रीति ग्रहण करके उन्होंने बड़ी सरस

रचना की है। यही बात दासजी के विषय में भी कही जा सकती है। परन्तु मतिराम के शब्दों में जितना कल्लोल है, जितना सङ्गीत है, जितना मनोमोहनी शक्ति है उतनी दासजी की रचना में नहीं पायी जाती। उनके कोई कोई पद्य इस प्रकार के हैं। परन्तु मतिराम के अधिकांश पद्य ऐसे ही हैं। दासजी ने श्रीपतिजी के भावों का अधिकतर अपहरण किया है और उनकी प्रणाली को ग्रहण कर अपने पद्यों में जीवन डाला है। परन्तु श्रीपति की शब्द-माला में जो मंजुता मिलती है. दासजी में नहीं पायी जातो। फिर भी उनकी रचना कवि-कर्म से रहित नहीं है। उन्होंने 'बिष्णु-पुराण' का भी अनुवाद किया है और अमरकोश का भी, जिससे पाया जाता है कि उनका संस्कृत का ज्ञान भी अच्छा था । बिष्णु पुराण की रचना उतनी सरस और सुन्दर नहीं है। जितनी शृंगार निर्णय अथवा काव्य-निर्णय की। फिर भी उसमें कवितागत सौन्दय्य है। हां. शिथिलता अवश्य अधिक है । दासजीका काव्य-शास्त्र का ज्ञान उल्लेखनीय है। इसी शत्ति से उन्होंने काव्य-रचना में अपनी यथेष्ट योग्यता दिखलाई है। रीति ग्रन्थ के जितने आचाय्य हिन्दी साहित्य में हैं उनमें इनका भी आदरणीय स्थान है ।

                    (२)
 भाव-सौन्दर्य-सम्पादन और सुगठित शब्द-विन्यास करने में इस

शताब्दी में देव जो के बाद श्री पति का हो स्थान है। देव जो की रचना में कहीं कहीं इतनी गंभीरता है कि उसका भाव स्पष्ट करने के लिये अधिक मनोनिवेश की आवश्यकता होती है। किंतु श्री पति जी को रचनाओं में यह बात नहीं पाई जाती । वह चाँदनी के समान सुविकसित है और मालती के समान प्रफुल्ल । जैसो चाँदनी सुधामयी है, वैसी ही वह भी सरस है । जैसी मालती को सुरभि मुग्धकरी है वैलो ही वह भी बिमोहक है। श्रीपति जी कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे, उनका निवास स्थान कालपी में था। उनकी विशेषता यह है कि उनका स्वच्छन्द जीवन था और हृदय के स्वाभाविक उल्लास से वे कविता करते थे। इसलिये उनकी रचना भो उल्लासमयी है।