पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/४१३

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सलिल का वह निमुक्त प्रवाह जो अपनी स्वतंत्र गति से प्रवाहित 
होता
रहता है, जैसा होता है, वैसी ही उनकी स्वतः प्रवाहिनी कविता 
भी है।
उनका काव्य-सरोज' नामक ग्रंथ साहित्य-क्षेत्र में उच्च स्थान 
रखता है ।
दोषों का जैसा विशद वर्णन समालोचनात्मक दृष्टि से उन्होंने किया 
है वैसा
उनके पहले का कोई कवि अथवा महाकवि नहीं कर सका । 
दोषों का इतना
सूक्ष्म विवेचन उन्होंने किया है कि महाकवि केशवदास की उच्चतम 
रचनायें
भी उनकी दोषदर्शक दृष्टि से न बच सकी । इसग्रंथ के अतिरिक्त 
उनके छः
ग्रंथ और हैं जिनमें 'कवि-कल्पद्र म', 'रससागर', 'अनुप्रास- 
विनोद' और
अलंकार-गंगा' विशेष उल्लेखनीय हैं। उन्होंने भी काव्य के सब 
अंगों का
वर्णन किया है। और वह भी इस शैली से, जो विशदता और 
विद्वत्ता से
पूर्ण है, सेनापति के समान उन्होंने भो ऋतुओं का वर्णन बड़ो 
भावुकता के
साथ किया है। परंतु यह मैं कहूंगा कि उनके वर्णन में सरसता 
अधिक है ।
उनका बर्षा का वर्णन बहुत ही हृदय ग्राही है। एक विशेषता उनमें 
और
पायी जाती है। वह यह कि उन्होंने नैतिक रचनायें भी की हैं और 
उसमें
अन्योक्ति के आधार अथवा मावमय ब्यंजनाओं के अवलम्बन से 
ऐसी
भावुकता भरदी है कि उनके द्वारा हृदय अधिकतर प्रभावित होता 
है और
उसमें सत्प्रवृत्ति जागृत होतो है। उनके इस विषय के कोई कोई 
कवित्त बड़े
ही अनूठ और उपयोगी हैं, जो एक आचरणशील उपदेशक का 
काम यथाव-
सर करदेते हैं । उनकी कुछ रचनायें नीचे लिखी जाती हैं: --- 
१-- सारस के नादन को बाद ना सुनात कहूं
        नाहक ही पकवाद दादुर महा करै ।
    श्री पति सुकबि जहां ओज ना सरोजन को
        फूल ना फुलत जाहि चितदै चहा करै।
    बकन की बानी की विराजत है राजधानी
        काई सो कलित पानी फेरत हहा करै।
    घोंघन के जाल जामैं नरई सिवाल व्याल
        ऐसे पापी ताल को मराल लै कहा करै।