पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/४२५

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       सातो चिरजीवी पुनि मारकंडे लोमस लौं
           देखि कंपमान होत खोलें जब झोली तें।
       गरल अनल औ प्रलय दावानल भर
           बेनि कबि छेदि लेत गिरत हथोली तें।
       बचन न पावैं धनवंतरि जो आवैं
           हरगोबिँद बचावैं हरगोबिंद की गोली तें।
   इस पद्य में एक वैद्य जी को नाड़ी वेतरह टटोली गयो है ।
  ४---गड़िजात बाजी औ गयंद गन अड़ि जात
          सुतुर अकड़ि जात मुसकिल गऊ की ।
      दाँवन उठाय पाय धोखे जो धरत कोऊ
          आप गरकाप रहि जात पाग मऊ की।
      बेनी कबि कहै देखि थर थर काँपै गात
          रथन के पथ ना बिपद बरदऊ की ।
      बार बार कहत पुकार करतार तो सों
          मीच है कबूल पै न कीच लखनऊ की।
 इम पद्य में लखनऊ पर बेतरह कोच उछाली गई है।
 ५---चींटी की चलावै को मसा के मुख आय जाय
     साँस की पवन लागे कोसन भगत है।
     ऐनक लगाय मरू मरू कै निहारे परैं
     अनु परमानु की समानता खगत हैं।
     बेनी कबि कहै हाल कहाँ लौं बखान करौं।
     मेरी जान ब्रह्म को विचारिवो सुगत है।