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फ़ारसी के नामी विद्वान थे। फिर भी इन्होंने ब्रजभाषा में रचना की और इस निपुणता से की जो उल्लेखनीय है। इनके दोनों ग्रंथ दोहों में हैं । पहले में अंगों का वर्णन है और दूसरे में नत्र ग्सों पर सग्स और माव- मयी कविता है । इनको फ़ारसो और उर्दू के शेरों का अनुभव था जो दो वंदों में हो बहुत कुछ चमत्कार दिखला जाते हैं। इसलिये इन्हों ने उन्हीं का अनुकरण किया और अपने दोहों को वैसा हो चमत्कारक बनाया । इनको सुन्दर सरस ओर भावमयो भाषा व्रजमापा देवी के चरणों पर चढ़ाने के लिये मुग्ध कर सुमनावलि-माला समान है। इनके दोहों को सुनकर यह जो कहने लगता है कि क्या कोई मुसल्मान भी ऐसी टकसाली भाषा लिख सकता है ? किंत रसलीन ने इस शंका का समाधान कर दिया है । इनकी कुछ ग्चनायें देखिये:----
१---अमी हलाहल मद भरे स्वेत स्याम रतनार ।
जियत मरत झुकि २ परत जेहि चितवत एकबार
२---मुख समिनिरखि चकोर अरु तन पानिपलखि मीन ।
पद पंकज देखत भँवर होत नयन रमलीन ।
३---सौतिन मुख निमि कमल भो पिय चख भये चकोर ।
गुरुजन मन सागर भये लखि दुलहिन मुख और।
४---मुकुल भये घर खोय कै कानन बैठे आय ।
अब घर खोवत और के कोजै कौन उपाय ।
५---धरति न चौकी नगजरी याते उर में लाइ ।
छाँह परे पर पुरुष की जनि तिय धरम नसाइ ।
इस शताब्दो में बहुत अधिक रीति ग्रंथकार हुये हैं। सब के विषय में
कुछ लिखना हमारे उद्देश्य से सम्बन्ध नहीं रखता। सवको भाषा लगभग एक ही है और एक ही विषय का वर्णन प्रायः सभी ने किया है। उनमें जो आदर्श थे और जिनमें कोई विशेषता थी उनके विषय में जो लिखना था