पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/४४७

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हो तो उसमें यह शक्ति होती है कि वह दुर्गुण को गुण बना देता है, पशुता को मानवता से बदल देता है, दुर्जनता को सुजनता में परिणत कर देता है और इस बात का अनुभव कराता है कि 'सर्वखल्विदं ब्रह्म' जो कुछ विश्व में है, ब्रह्म है। अतएव उसका संसार सोने का हो जाता है ओर सब ओर उसको सत्यं शिवं सुंदरं' दृष्टिगत होता है। किंतु जब यह प्रेम मनुष्य तक हो परिमित होता है तो उसमें स्वार्थपरता की बूं आने लगती है और मनुष्य का इतना पतन हो जाता है कि वह उस उच्च सोपान पर नहीं चढ़ सकता जो जीवन को स्वर्गीय बना देता है। 'घनआनन्द', 'रसखान' का आदिम जीवन कैसा हो रहा हो, यौवन-प्रमाद इनको कुछ काल के लिये भले ही भ्रांत बना सका हो, किन्तु उनका अन्तिम जीवन उज्ज्वल है और वे उस महान हृदय के समान हैं, जो पथ-च्युत होकर भी अंत में सत्पथावलंबी हो जाता है। मानव-प्रेम यदि उच्च होकर आदर्श प्रेम में परिणत हो जाये तो वह मानव-प्रेम अभिनन्दनीय है।‌ जिस मानव-प्रेम में स्वाथ को वू नहीं वासनाओं का विकार नहीं, इन्द्रिय लोलुपता को कालिमा नहीं, लोभ लिप्सा का प्रलोभन नहीं, कर्तव्य ज्ञान की अवहेलना नहीं, वह स्वर्गीय है और उसमें लोक-कल्याण की विभूति विद्यमान है। इसीलिये वह वांछनीय है। दुःख है कि प्रेमिक जीव‌ होने पर भी बोधा इस तत्व को यथातथ्य नहीं समझ सके। वे सरयूपारीण ब्राह्मण थे, परन्तु एक यवनी के प्रेम में ऐसे उन्मत्त हुए कि अपनी कुल मर्यादा को ही नहीं विसर्जन कर दिया' अपनी आत्मानुभूति को भी तिलांजलि दे दी। उनके मुख से प्रेम मंत्र स्वरूप जब निकलता है तब 'सुभान अल्लाह' निकलता है। उनके पद्यों में 'सुभान' ही का गुणगान मिलता है। उसमें ईश्वरानुराग की गंध भी नहीं‌ आती। अच्छा होता यदि उन्होंने उस पंथ को स्वीकार किया होता, जिसको घनानंद और रसखान ने मानवी प्रेमोन्माद की समाप्ति पर ग्रहण किया, संतोष इतना ही है कि उन्होंने अपने धर्म को उस पर उत्सर्ग नहीं किया। हम अपने क्षोभ का शमन उसी से करते हैं। बोधा अपनी धुन के पक्के थे। प्रेम उनकी रग रग में भरा था। उनमें जब इतनी आत्म-विस्मृति हो गयी थी कि वे